Monday, November 10, 2014

फिर उत्तराखंड की उपेक्षा

केन्द्रीय मंत्रिमंडल के दूसरे विस्तार में भी उत्तराखंड को कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला है. जिससे पहाड़ की जनता निराश है. केंद्र सरकार में उत्तराखंड की भागीदारी न होने का अपने आप में एक रिकार्ड भी बन गया है. देश भर में अब उत्तराखंड के अलावा कोई ऐसा प्रदेश नहीं बचा है जहां से भाजपा को कोई सीट मिली हो और वहां से किसी न किसी को मंत्रीपद न मिला हो.
केन्द्रीय मंत्रिमंडल में वे राज्य भी शामिल हैं जहां से भाजपा को मात्र एक ही सीट मिली है, किन्तु उत्तराखंड से पांचों पर जीत दर्ज करने के बावजूद केंद्र ने घोर उपेक्षापूर्ण वर्ताव किया है. जिससे पहाड़ की जनता आहात है. भाजपा द्वारा उत्तराखंड की उपेक्षा का इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है की तमिलनाडु में 48 में से मात्र एक कन्याकुमारी की सीट भाजपा को मिली और विजेता एमपी राधाकृष्णन तक को मंत्री पद दे दिया गया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह प्रदेश गुजरात के बाद उत्तराखंड ही ऐसा प्रदेश रहा, जहां कुल मतदान का 56 प्रतिशत हिस्सा भाजपा को मिला. इसी के साथ पांचों लोकसभा सीटें जिताकर राजस्थान जैसे अग्रणी भाजपाई राज्यों की कतार में खुद को शामिल करने में भी उत्तराखंड कामयाब रहा. मोदी मंत्रिमंडल के विस्तार में भी उत्तराखंड के किसी सांसद को जगह मिलने की आस उत्तराखंडी लगाये थे किन्तु उन्हें इस बार भी निराशा ही हाथ लगी, इससे यहां जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं में घोर निराशा का आलम है. राज्य से लोस चुनाव में सबसे योग्य नेता भाजपा के ३-३ मुख्यमंत्री चुनाव जीत कर उत्तराखंड की जनता ने लोकसभा में भेजे. किन्तु ये उत्तराखंड से माननीय प्रधानमंत्री ने एक भी नेता को अपनी टीम में काम करने योग्य नहीं समझा. उत्तराखंड की जनता तब और भी आहात हुई है जब भाजपा एक तरफ प्रशासनिक अनुभव के नाम पर गोवा के मुख्यमंत्री के पद से लाकर केंद्र में मंत्री बनाती है, जबकि वाजपेयी सरकार में स्वर्णिम चतुर्भुज योजना को साकार करने की अहम जिम्मेद्दारी निभाने वाले पाहड के लोकप्रिय सांसद श्री भुवनचन्द्र खंडूरी, उत्तराखंड में १०८ जैसी जीवनदायिनी सेवा देने वाले सांसद श्री रमेश पोखरियाल निशंक, प्रशासनिक अनुभव और जनोन्मुखी सरकार का अनुभव रखने वाले श्री भगत सिंह कोशियारी जैसे पूर्व मुख्यमंत्रियों में से किसी पर भी भरोसा नहीं किया गया. केंद्र में इस अपमान का उत्तराखंड की जनता को सबक लेना चाहिए. यह हमारे राज्य के अनुभव का अपमान नहीं बल्कि पहाड़ के नेताओं और लोगों की राष्ट्रीय दलों के पीछे भागने की अंधी दौड़ का नतीजा है. जिन राज्यों में जनता भाजपा पर अंधविश्वास कर मोहित हो रही है वहां से किसी को मंत्री बनाना भाजपा को उचित नहीं लग रहा. भाजपा को पता है कि उत्तराखंड में उसकी जमीन को कोई खतरा नहीं है और “इस बार कांग्रेस है, अगली बार उसकी बारी है”. इस लिहाज से किसी को मंत्री भी बनाना पड़ा तो २०१६  में बनाया जायेगा, क्योंकि चुनाव ०२१७ में होने हैं. पहाड़ की जनता और नेता भूल जाएंगे केंद्र में अपना अपमान और २०१७ में फिर हो जाएँगे भाजपामय!

Saturday, November 8, 2014

उत्तराखंड के गांधी श्री बडोनी जी को नमन


उत्तराखंड राज्य निर्माण के १४ वर्ष पूरे हो गए हैं. सबसे पहले उत्तराखंड के शहीदों को शत-शत नमन. जब हम बात उत्तराखंड की करें तो अलग राज्य के सपने को हकीकत में बदलने का श्रेय जाता है स्व. इन्द्रमणि बडोनी जी को. बडोनी जी का जन्म उत्तराखंड के टिहरी जनपद के जखोली ब्लाक ११ गांव हिंदाव के अखोडी गांव में २४ दिसम्बर १९२५ को हुआ. पहाड़ की प्रतिकूल परिस्थितियों में निरंतर जनता के अधिकारों के लिए सतत संघर्षो से जूझने का  जज्बा श्री बडोनी जी में था.
आजादी के बाद कामरेड पीसी जोशी के सम्पर्क में आने के बाद बडोनी जी पूरी तरह राजनीति में सक्रिय हुए. बडोनी जी की चिंता पहाड़ को लेकर उसके हकों की लड़ाई को लेकर रहती थी. बडोनी जी का सपना पहाड को आत्मनिर्भर राज्य बनाने का था,
उत्तराखंड की हर विशेषताओं को अलग पहचान दिलाने, पहाड़ की लोककला को महत्वपूर्ण स्थान दिलाने वे पहाड़ की संस्कृति बचाने के हिमायती थे. वर्ष १९५८ में राजपथ पर गणतंत्र दिवस के मौके पर उन्होंने हिंदाव के लोक कलाकार श्री शिवजनी जी (ढुंग), श्री गिराज जी (ढुंग) के नेतृत्व में केदार नृत्य का ऐसा समा बंधा की तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु भी उनके साथ थिरक उठे थे. जवाहर लाल नेहरु जैसे महान नेताओं को भी आकर्षित करने वाले श्री बडोनी जी पाहड के मुद्दों को लेकर कभी राष्ट्रीय पार्टियों के सामने नतमस्तक नहीं हुए और अपने सिधान्तों पर दृढ रह कर देवप्रयाग विधानसभा से निर्दलीय प्रत्याशी के रुप में चुनाव डे. उनकी मुख्य चिंता इसी बात पर रहती थी कि पहाडों का विकास कैसे हो. जनता में उनकी सादगी और लोकप्रियता के बल पर इन्द्रमणि बडोनी १९६७, १९७४, १९७७ में देवप्रयाग विधानसभा सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के रुप में चुनाव जीत कर उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य रहे. उत्तर प्रदेश में बनारसी दास गुप्त के मुख्यमंत्रित्व काल में वे पर्वतीय विकास परिषद के उपाध्यक्ष रहे. पहाड़ के प्रति उनके चिंतन ने श्री इन्द्रमणि बडोनी जी को उत्तराखण्ड का महानायक और आंदोलन का अग्रदूत बनाया.
उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के लिए वह १९८० में उत्तराखण्ड क्रांति दल में शामिल हुए. उन्हें पार्टी का संरक्षक बनाया गया. १९८९ से १९९३ तक उन्होंने उत्तराखण्ड राज्य प्राप्ति के लिए पर्वतीय अंचलों में व्यापक जनसम्फ करके जन जागृति अभियान चलाया और लोगों को अलग राज्य की लडाई लडने के लिए तैयार किया. १९९४ में व्यापक आंदोलन शुरु होने के बाद वह प्राणमन से आंदोलन के प्रचार-प्रसार में लग गये. स्कूल कालेजों में आरक्षण व पंचायती सीमाओं के पुनर्निधारण से नाराज इन्द्रमणि बडोनी ने २ अगस्त १९९४ को कलेक्ट्रेट कार्यालय पर आमरण अनशन शुरु कर दिया जो उत्तराखण्ड आंदोलन के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ. उनके इसी आमरण अनशन ने आरक्षण के विरोध को उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन में बदल दिया. जिसके फलस्वरूप उत्तरांचल राज्य की स्थापना हुई. स्व. इन्द्रमणि बडोनी जी अहिंसक आंदोलन के प्रबल समर्थक थे. इसलिए श्री इन्द्रमणि बडोनी जी के बारे में अमरीकी अखबार वाशिंगटन पोस्ट ने स्व. इन्द्रमणि बडोनी को पहाड के गांधी” की उपाधि दी थी. वाशिंगटन पोस्ट ने लिखा था कि उत्तराखण्ड आंदोलन इन्द्रमणि बडोनी की भूमिका आजादी के संघर्ष में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सामान थी. किन्तु उत्तरप्रदेश की तत्कालीन सरकार की हठधर्मिता के कारण उत्तराखंड का आन्दोलन पुलिस ज्यादतियों के कारण आंदोलन हिंसक हो गया था. किन्तु लम्बे संघर्ष का सुखद परिणाम देखने से पूर्व ही १८ अगस्त १९९९ को श्री बडोनी जी का निधन हो गया. राष्ट्रीय दलों की राजनीति और समय का खेल देखिये बडोनी जी के संघर्ष से ९ नवंबर २००० को २७वे राज्य के रूप में जो अलग राज्य मिला उसका एक तो नाम उत्तरांचल रखा गया वहीं पहाड़ की बुनियाद पर बने राज्य का पहला मुख्यमंत्री भी कोई  पहाड़ी नहीं बन सका. उत्तराखंड के स्थापना दिवस पर उत्तराखंड के गांधी को शत-शत नमन.  
  

Friday, November 7, 2014

...तो एसे बना था अलग उत्तराखंड
उत्तराखंड राज्य निर्माण के १४ वर्ष पूरे हो रहे हैं. आएं जाने कैसा बना हमारा अलग राज्य.
उत्तराखण्ड संघर्ष से राज्य के गठन तक की कुछ महत्वपूर्ण तिथि-घटनाएं
·         भारतीय स्वतंत्रता आन्देालन की एक इकाई के रूप में उत्तराखंड में स्वाधीनता संग्राम के दौरान १९१३ के कांग्रेस अधिवेशन में उत्तराखण्ड के अधिकांश प्रतिनिधि सम्मिलित हुए. इसी वर्ष उत्तराखण्ड के अनुसूचित जातियों के उत्थान के लिये गठित टम्टा सुधारिणी सभा का रूपान्तरण एक व्यापक शिल्पकार महासभा के रूप में हुआ.
·         १९१६ के सितम्बर माह में गोविन्द बल्लभ पंतहरगोविन्द पंतबद्री दत्त पाण्डेयइन्द्रलाल शाह मोहन सिंह दड़मवाल चन्द्र लाल शाह प्रेम बल्लभ पाण्डेयभोलादत्त पाण्डेय और लक्ष्मीदत्त शास्त्री आदि उत्साही युवकों के द्वारा कुमाऊँ परिषद् की स्थापना की गई जिसका मुख्य उद्देश्य तत्कालीन उत्तराखण्ड की सामाजिक तथा आर्थिक समस्याओं का समाधान खोजना था. १९२६ तक इस संगठन ने उत्तराखण्ड में स्थानीय सामान्य सुधारों की दिशा के अतिरिक्त निश्चित राजनैतिक उद्देश्य के रूप में संगठनात्मक गतिविधियाँ संपादित कीं. १९२३ तथा १९२६ के प्रान्तीय षरिषद् के चुनाव में गोविन्द बल्लभ पंत हरगोविन्द पंत,मुकुन्दी लाल तथा बद्री दत्त पाण्डेय ने प्रतिपक्षियों को बुरी तरह पराजित किया.
·         १९२६ में कुमाऊँ परिषद् का कांग्रेस में विलीनीकरण कर दिया गया.
·         आधिकारिक सूत्रों के अनुसार मई १९३८ में तत्कालीन ब्रिटिश शासन में गढ़वाल के श्रीनगर में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने इस पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को अपनी परिस्थितियों के अनुसार स्वयं निर्णय लेने तथा अपनी संस्कृति को समृद्ध करने के आंदोलन का समर्थन किया.
·         सन् १९४० में हल्द्वानी सम्मेलन में बद्री दत्त पाण्डेय ने पर्वतीय क्षेत्र को विशेष दर्जा तथा अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने कुमाऊँ-गढ़वाल को पृथक इकाई के रूप में गठन करने की माँग रखी. १९५४ में विधान परिषद के सदस्य इन्द्र सिंह नयाल ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री गोविन्द बल्लभ पंत से पर्वतीय क्षेत्र के लिये पृथक विकास योजना बनाने का आग्रह किया तथा १९५५ में फ़ज़ल अली आयोग ने पर्वतीय क्षेत्र को अलग राज्य के रूप में गठित करने की संस्तुति की.
·         वर्ष १९५७ में योजना आयोग के उपाध्यक्ष टी.टी. कृष्णम्माचारी ने पर्वतीय क्षेत्र की समस्याओं के निदान के लिये विशेष ध्यान देने का सुझाव दिया. १२ मई १९७० को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा पर्वतीय क्षेत्र की समस्याओं का निदान राज्य तथा केन्द्र सरकार का दायित्व होने की घोषणा की गई और २४ जुलाई १९७९ को पृथक राज्य के गठन के लिये मसूरी में उत्तराखण्ड क्रान्ति दल की स्थापना की गई. जून १९८७ मेंकर्णप्रयाग के सर्वदलीय सम्मेलन में उत्तराखण्ड के गठन के लिये संघर्ष का आह्वान किया तथा नवंबर १९८७ में पृथक उत्तराखण्ड राज्य के गठन के लिये नई दिल्ली में प्रदर्शन और राष्ट्रपति को ज्ञापन एवंहरिद्वार को भी प्रस्तावित राज्य में सम्मिलित करने की माँग की गई.
·         १९९४ उत्तराखण्ड राज्य एवं आरक्षण को लेकर छात्रों ने सामूहिक रूप से आन्दोलन किया. मुलायम सिंह यादव के उत्तराखण्ड विरोधी वक्तव्य से क्षेत्र में आन्दोलन तेज हो गया. उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के नेताओं ने अनशन किया. उत्तराखण्ड में सरकारी कर्मचारी पृथक राज्य की माँग के समर्थन में लगातार तीन महीने तक हड़ताल पर रहे तथा उत्तराखण्ड में चक्काजाम और पुलिस फायरिंग की घटनाएँ हुईं. उत्तराखण्डआन्दोलनकारियों पर मसूरी और खटीमा में पुलिस द्वारा गोलियाँ चलाईं गईं. संयुक्त मोर्चा के तत्वाधान में २ अक्टूबर१९९४ को दिल्ली में भारी प्रदर्शन किया गया. इस संघर्ष में भाग लेने के लिये उत्तराखण्ड से हज़ारों लोगों की भागीदारी हुई. प्रदर्शन में भाग लेने जा रहे आन्दोलनकारियों को मुजफ्फर नगर में बहुत प्रताड़ित किया गया और उन पर पुलिस ने गोलीबारी की और लाठियाँ बरसाईं तथा महिलाओं के साथ अश्लील व्यवहार और अभद्रता की गयी. इसमें अनेक लोग हताहत और घायल हुए. इस घटना ने उत्तराखण्ड आन्दोलन की आग में घी का काम किया. अगले दिन तीन अक्टूबर को इस घटना के विरोध मेंउत्तराखण्ड बंद का आह्वान किया गया जिसमें तोड़फोड़ गोलीबारी तथा अनेक मौतें हुईं.
·         ७ अक्टूबर, १९९४ को देहरादून में एक महिला आन्दोलनकारी की मृत्यु हो हई इसके विरोध में आन्दोलनकारियों ने पुलिस चौकी पर उपद्रव किया.
·         १५ अक्टूबर को देहरादून में कर्फ़्यू लग गया और उसी दिन एक आन्दोलनकारी शहीद हो गया.
·         २७ अक्टूबर, १९९४ को देश के तत्कालीन गृहमंत्री राजेश पायलट की आन्दोलनकारियों की वार्ता हुई.
·         इसी बीच श्रीनगर में श्रीयंत्र टापू में अनशनकारियों पर पुलिस ने बर्बरतापूर्वक प्रहार किया जिसमें अनेक आन्दोलनकारी शहीद हो गए.
·         १५ अगस्त१९९६ को तत्कालीन प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा ने उत्तराखण्ड राज्य की घोषणा लालकिले से की.
१९९८ में केन्द्र की भाजपा गठबंधन सरकार ने पहली बार राष्ट्रपति के माध्यम से उ.प्र. विधानसभा को उत्तरांचल विधेयक भेजा. उ.प्र. सरकार ने २६ संशोधनों के साथ उत्तरांचल राज्य विधेयक विधान सभा में पारित करवाकर केन्द्र सरकार को भेजा. केन्द्र सरकार ने २७ जुलाई२००० को उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक २००० को लोकसभा में प्रस्तुत किया जो १ अगस्त, २००० को लोकसभा में तथा १० अगस्त, २००० अगस्त को राज्यसभा में पारित हो गया. भारत के राष्ट्रपति ने उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक को २८ अगस्त, २००० को अपनी स्वीकृति दे दी और इसके बाद यह विधेयक अधिनियम में बदल गया और इसके साथ ही ९ नवम्बर २००० को उत्तरांचल राज्य अस्तित्व मे आया जो अब उत्तराखण्ड नाम से अस्तित्व में है

फिर उत्तराखंड की उपेक्षा

केन्द्रीय मंत्रिमंडल के दूसरे विस्तार में भी उत्तराखंड को कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला है. जिससे पहाड़ की जनता निराश है. केंद्र सरकार में उत...