Wednesday, July 7, 2010

प्रस्तावना

प्रस्तावनादेवभूमि उत्तराखंड देवताओं की भूमि के रूप में विख्यात है. देवभूमि से जुड़ी कई सत्यकथाएं आज भी इतिहास के पन्नों में स्वर्णअक्षरों में दर्ज हैं. हमारे मेले-कौथिग गवाह हैं कि पूर्वजों द्वारा स्थापित परंपराओं को प्रत्येक पीढिय़ों ने उत्साहपूर्वक मनाया. साथ ही ऐसी भी कई प्रचलित सत्यकथाएं रहीं, जो कागज के टुकड़ों में लिपिबद्ध नहीं होने के कारण या तो दंतकथाएं बन कर रह गईं या फिर बुजुर्गों की चिताओं में जल कर ही राख हो गईं. स्थापित परंपराओं को हम भले निभाते जा रहे हैं, किंतुउन प्रसंगों के अलिखित होने के कारण अपने मेले-उत्सवों के महत्व को और गहराई से नहीं जान सके. पूर्वर्जों द्वारा स्थापित मेले पीढ़ी-दर-पीढ़ी लगेंगे, लेकिन इसके साथ ही एक ऐसा इतिहास भी विस्मृत होता जाएगा, जिसे हम सहेज कर नहीं रख सके. आज जबकि हमारे पास संसाधनों का अभाव नहीं है, ऐसे में यह हमारा नैतिक कर्तव्य बन जाता है कि इस दिशा में हम मिलकर ऐसा प्रयास करें, जिससे जगदी से जुड़े विभिन्न प्रसंगों से आने वाली पीढ़ी रू-ब-रू हो सके. हिंदाव की जगदी पर आधारित ''मां जगदीÓÓ नामक यह लिखितआयोजन ऐसा ही एक प्रयास है, जिसकी संकल्पना को बुद्धिजीवियों ने अपना अमूल्य सहयोग प्रदान किया और हम इस आयोजन को 'मां जगदीÓ को समर्पित करने में सफल हुए हैं. प्रसार-प्रचार के इस दौर में हिंदाव की जगदी का परिचय भी लिखित रूप में लोगों तक पहुंचे, यह हमारा उद्देश्य है. पुस्तक में विभिन्न लेखों के माध्यम से जगदी की उत्पत्ति से लेकर अन्य विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है. पुस्तक के माध्यम से जहां नई पीढ़ी को अपनी आराध्य देवी जगदी की लिखित जानकारी उपलब्ध होगी, वहीं पास-पड़ोस की पट्टिïयों के अलावा जगदी का परिचय राज्य में विस्तार करेगा. निश्चित तौर पर इस प्रयास की सफलता सुधीपाठकों की राय पर निर्भर करेगी.बहरहाल, यह नौज्यूला हिंदाव की जगदी के इतिहास को लिखित रूप में संजोने की शुरुआती कोशिश मात्र है. यह भी संभव है कि जगदी से जुड़े और भी कई प्रसंग हमारे बुजुर्गों, बुद्धिजीवियों की यादों के स्मरण पटल पर हों और हम उन तक नहीं पहुंच पाए हों. हमने इस आयोजन में अधिकाधिक लोगों को शामिल करने की कोशिश की और यह पहल आगे भी जारी रहेगी. मेरा आग्रह है कि क्षेत्र के बुद्धिजीवी, बुजुर्ग जगदी से जुड़े अपने संस्मरण, फोटो सामग्री एवं इस ''मां जगदीÓÓ नामक लिखित आयोजन पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य भेजें, ताकि आने वाले समय में इस लिखित पहल को और भी पठनीय और समग्र आकार दिया जा सके. जगदी के संबंध में लिखित जानकारी पाठकों तक पहुंचाने हम प्रतिबद्ध हैं और प्रतिबद्धता की कसौटी पर खरा उतरना क्षेत्रवासियों के सहयोग के बिना संभव नहीं है.

अपनत्व का नाम है मां जगदी


एक विश्वास, एक आस्था एक अपनत्व का नाम है मां जगदी. ठिठुर पूस के बर्फीले महीनों में जब क्षेत्र में कोई विशेष तीज-त्यौहार नहीं होते, तब बैणी-धियाणी अपने मैतियों से मिलने को व्याकुल हो जाती हैं, कहते हैं इसी व्याकुलता को दूर करने वास्ते जगदी मां ने अपने भक्तों से अपनी जिस पूजा का, जिस मेले का आयोजन करने को कहा उसे ही नौज्यूला हिन्दाव की ''जगदी जातÓÓ कहते हैं. देवी-देवता हों या ऋषि-मुनि लगभग सभी का उद्गम स्थल, सभी का तपोस्थल, गंगा जी का स्त्रोत प्रदेश, देवभूमि हमारा उत्तराखंड. इसी उत्तराखंड में बसा है नौज्यूला हिन्दाव, जिसे अपनी ममता के आंचल में समेटे खड़ी है मेरी इस मातृभूमि की रक्षपाल ''मां जगदीÓÓ.बाल्यकाल गांव में विताये अल्प समय की खुद (यादें) मिटाये नहीं मिटती हैं. उस वक्त मेरी हिन्दाव पट्टïी में मुख्य दो ही मेले होते थे- हुलानाखाल का थलु और जगदी की जात, दोनों में खूब भीड़-भाड़ होती थी. देश-प्रदेशों से लोगों का झुण्ड-का- झुण्ड आता था. नाना-नानियों, मामा-मौसियों का लाडला उस भीड़ में कहीं खो न जाय, इसलिए मुझे इन मेलों में नहीं जाने दिया जाता था, पर फिर भी एक बार जिद करके मैं अपनी मौसी के साथ नये कपड़े पहनकर, लैणी- पंगरियाणा के ढोल-दमाऊं, निशाण, तुरी-भंकोरों के साथ मां जगदी के स्थान शिलासौड़ पहुंच ही गया, जहां मुझे पहली बार एक बड़े आकार की शीला (पत्थर) के ऊपर मां जगदी के मंदिर के मां की ढोली के दर्शन हुए. साथ ही मेले में विभिन्न प्रकार का नाच, ढोल-दमाऊं की थाप पर देखने को मिला. फिर समय ने करवट बदली, हमारे पिताजी हम दोनों भाईयों को हजारी मां के साथ मां मुम्बादेवी की स्थली, मुंबई ले आये. परदेश में अपने गांव, अपने सहपाठियों, अपने देवी-देवतों, अपने लोगों की खुद वर्षों तक सताती रही. पर बचपन के संस्कार हमेशा साथ रहे. मां-बाप, बड़ों का आशीर्वाद तथा ''मां जगदीÓÓ के नाम के स्मरण से एक शक्ति की अनुभूति होती है. मन में एक आस्था, एक विश्वास जागता है, जिससे आगे बढऩे की प्रेरणा मिलती है. लगता है कि सच्चे मन से हम जिस काम पर लगेंगे मां जगदी उस काम में हमें सफलता जरूर देगी. हमारी अराध्य देवी 'मां जगदीÓ परम चमत्कारी है. वह अपने हर भक्त के मन की बात को खूब जानती है, ऐसी एक घटना मेरे साथ भी हुई. मैं अपने परमपूज्य आदरणीय श्री माधवान्द भट्टï जी द्वारा निर्मित फिल्म ''सिपैजीÓÓ जिस फिल्म को अभिनय के साथ-साथ मैंने खुद लिखा भी है, की शूटिंग ऋषिकेश में कर रहा था. सिपैजी फिल्म की शुरुआत ही जगदी जात से लौटते बाप-बेटे के सीन से होती है, जो जगदी के चमत्कार पर आधारित है.फिल्म की शूटिंग अपने अंतिम पढ़ाव पर थी. पर मन के एक कोने से काश की आवाज आती थी कि काश हम नौज्यूला हिन्दाव में मां जगदी करके यहां के भी कुछ दृश्यों का फिल्मांकन ''सिपैजीÓÓ में करवाते. एक दिन की शूटिंग में दो शख्स सुबह से ही शूटिंग देखतेे हुए मेरी तरफ भी इशारा कर रहे थे. शूटिंग खत्म होने पर वह दोनों महानुभव मेरे पास आकर पूछने लगे, कहां के हो, मेरा परिचय देेने पर वह दोनों खुश हुए, बोले हम पहचान तो गये पर असमंजस में थे, फिर उन्होंने प्रश्न किया जगदी के यहां नहीं करोगे शूटिंग? मैंने कहा ''जगदी नि चांदी मेरा ख्याल-सी त मिन क्य कनÓÓ. उनमें से जो भाई हुकमसिंह कैन्तुरा थे, कहने लगे कि ऐसा करो कि हम कल जा रहे हैं, तुम परसों टीम के साथ आ जाना, फिर पता नहीं क्या हुआ, मैं पहली बार अपने फिल्म निर्माता आदरणीय भट्टïजी की आज्ञा की अवेहलना करके अपनी टीम को नौज्यूला की तरफ ले गया. रात की एक बजे जगदीगाड पहुंचे. पूरी टीम दिन भर बिना खाये-पिये थी और रात को भी बिना शिकायत के खाये-पिये जगदीगाड पर बस में रात गुजारी और दूसरे दिन ही शूटिंग के लिए तैयार हो गई. मां जगदी की कृपादृष्टि से चार दिन की शूटिंग क्षेत्र में सही ढंग से संपन्न हुई. मैं आभारी हूं कैन्तुरा भाईसाहब का, श्री कुंवरसिंह नेगी जी का और पूरे हिन्दाव नौज्यूला के अपने समस्त बुजुर्गों, भाई-बहनों, बच्चों एवं फिल्म की पूरी टीम का, जिन्होंने मुझे पूर्ण सहयोग दिया. मां जगदी पर आधारित आयोजनों में शामिल होना किसी जगदी भक्त के लिए एक सुनहरा अवसर से कम नहीं है. इसके साथ ही मां जगदी का आशीर्वाद रहा तो शीघ्र ही मां जगदी के चमत्कार की फिल्म भी आप सभी के सामने लाने की कोशिश करूंगा.आपका ज्योति राठौर (अभिनेता)

Friday, July 2, 2010

जगदी की उत्पत्ति

नंदू की रौतेली जगदी की उत्पत्ति के संबंध में कहा जाता है कि देवकी की संतान के द्वारा कंस का वध निश्चित था. देवकी की आठवीं संतान द्वारा अपने विनाश की भविष्यवाणी से कंस ने अपनी गर्भवती बहन देवकी को काल कोठरी में डाल दिया. जैसे-जैसे देवकी के प्रसबकाल के दिन नजदीक आने लगे, कंस ने देवकी और वसुदेव का पहरा और भी कड़ा कर दिया. उधर, नंदू ग्वाल (महर) की पत्नी यशोदा मैया का भी प्रसबकाल नजदीक था. कृष्ण जन्माष्टमी की रात्रि १२ बजे देवकी ने जैसे ही कृष्ण को जन्म दिया, कंस के द्वारपालों, चौकीदारों को कालजाप पढ़ गया. उधर गोकुल में नंदू के घर यशोदा जी एक कन्या को जन्म देती हैं और विधाता के विधानस्वरूप वसुदेव कृष्ण को सूप में रखकर नंदू के घर और यशोदा की देजी (पुत्री) को देवकी के यहां ले जाया गया. जब कृष्ण भगवान सुरक्षित गोकुल में पहुंच गए तत्पश्चात कंस को यह ज्ञात हुआ कि देवकी की आठवीं संंतान ने जन्म ले लिया है, तो फिर कंस के विनाश की वही भविष्यवाणी कंस के कानों में गंूजती है, जिसमें देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवीं संतान कंस के अस्तित्व को हमेशा के लिए मिटा देगी. कंस इसी पल देवकी की आठवीं संतानरूपी कन्या को अपने कब्जे में लेकर पत्थर की शिला पर पटखने का प्रयास करता है, किंतु देवीय शक्ति के आगे आसुरी शक्ति का तो विनाश लिखा जा चुका था. कंस के हाथ से यह कन्या बिजली के समान निकलकर आकाश में समाहित होती है. कुदरत के खेल में तो पापी कंस का अंत तय हो गया था और तब जोगमाया जगदम्बा रूपी कन्या बरास्ता केदारकांठा मयाली कंकण में जगदी के रूप में प्रकट होती हैं.यही मयाली कंकण हिंदाव की जगदी के उत्पत्तिस्थल के रूप में विख्यात है. मयाली कंकण के बारे में हमारे पूर्वजों ने जगदी के प्राकट्य को लेकर हमें जो जानकारी दी, उसके अनुसार टिहरी गढ़वाल के भिलंग (गंवाणा) के पशुचारकों सहित यहां पहुंचने वाले भेड़-बकरी पालकों को सर्व प्रथम मां जगदी (जगदम्बा) ने मयाली कंकण में अपनी उपस्थिति का आभास कराया. कहा गया है कि मयाली कंकण में बुग्यालों की इस धरती पर जगदी ने सर्वप्रथम सोने के कंकणों के रूप में अपनी मायावी शक्ति का परिचय कराया. मयाली कंकण में सोने के कंकण सर्व प्रथम इन भेड़-पशु पालकों को जगह-जगह बिखरे मिले. इन्हें समझने में इन्हें कही समय लगा, परंतु मायावी कंकणों का रहस्य जगदी के चमत्कारों के साथ खुलता गया और तब मां जगदी ने इन्हें दर्शन दिए. कहते हैं उसके बाद इन भेड़-बकरी पालकों की रक्षा का दायित्व मानों जगदी ने अपने ऊपर ले लिया. हर वर्ष चौमासा सीजन में ये भेड़-बकरी पालक अपने पशुधन के साथ मयाली कंकण की धरती पर आया-जाया करते, ठीक इसी रूप में जैसे पालसी/गद्दी एवं वन गूजर भारी संख्या में आज भी शीत ऋतु की समाप्ति और वसंत के आगमन पर उत्तराखंड के वनों में आते-जाते हैं. बताते हैं कि सोने के यह मायावी कंकण मयाली कंकण जाने वाले पशुपालक रक्षासूत्र के रूप में धारण करते थे. शरद ऋतु के बाद फिर ये पशुपालक स्वयं एवं अपने पशुधन की वापसी के समय इन कंकणों को वहीं रख अपने घरों लौटते.

जगदी का हिंदाव आगमन

शरद ऋतु के बाद शिशिर ऋतु जैसे ही शुरू होने लगती है पर्वतीय इलाकों में ठंड का साम्राज्य शुरू हो जाता है और फिर जैसा कि हम जानते हैं, जंगलों में विचरण करने वाले भेड़-बकरी व घोड़े पालक एवं वन गूजर अपने गृहनगर या मैदानी क्षेत्रों की ओर लौटने लगते हैं. उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र की यह बुग्यालों की धरती फिर ३-४ महीनों के लिए बर्फ के आगोश में समा जाती है. पहाड़ की समूची पर्वत शृंखलाओं के बर्फ की चादर ओढ़ लेने के बाद मयाली कंकण की वादियों के सुनसान होने के मंजर की भी कल्पना की जा सकती है. बुजुर्गों से हमें जो जानकारी मिली, बताते हैं कि ऐसे वक्त जब पहाड़ से भेड़-बकरी पालक एवं महर लोग अपने गांवों को लौटते तो जगदी भी मयाली कंकण से पंवाली कांठा तक आई. लेकिन बताते हैं जगदी का मन यहां भी नहीं लगा और जगदी ने हिंदाव की ओर प्रस्थान किया.कहते हैं जगदी के हिंदाव आगमन की राह में फिर जो भी बाधाएं आईं जगदी ने उन्हें पार कर अपना रास्ता तय किया. जगदी के हिंदाव आगमन के सफर में यहां के दैत्यों ने रास्ता रोकने के कई असफल प्रयास किए. हिंदाव की रैत-प्रजा के रक्षार्थ गांवों की तरफ बढ़तीं जगदी के रास्ते में आने वाली बाधाओं का जगदी ने विनाश कर अपना रास्ता तय किया. बताते हैं जगदी के रास्ते में प्रमुख बाधा खड़ी करने वाला एक दैत्य खटकेश्वर (सिलेश्वर) भी था. वर्तमान खटकड़़ नामक स्थल का दैत्य जगदी के हिंदाव आगमन के रास्ते में बाधाएं पैदा करने लगा, जिसका जगदी ने अपने खटक से संहार कर लिया. कहते हैं जगदी ने खटकेश्वर दैत्य का सिर अपने खटक से काट दिया, जो शिलासौड़ नामक स्थान पर गिरा, जिसमें मां जगदी शेर के घोड़े में सवार होकर अवतरित हुईं और यह स्थान शिलासौड़ के नाम से विख्यात हुआ. शिलासौड़ में इस पत्थर में बने मंदिर में आज भी मां जगदी शेर के घोड़े में सवार मूॢत रूप में विराजमान हैं. यहां पत्थर की विशाल शिला जो दैत्य का सिर बताया जाता है, पर स्थापित जगदी का मंदिर आज भी शेर के घोड़े में सवार मां जगदी का स्पष्ट आभास कराता है.शिलासौड़ में जगदी के अवतरण के साथ तब बारी थी नौज्यूला के लोगों को अपने (जगदी) प्रकट होने का अहसास कराने की. कहते हैं कि यहां हिंदाव की आबादी उस दौर में पाली के आसपास निवास करती थी. यहां के लोग अपनी गाय-भैंसों को सुबह चराने जंगल में छोड़ देते थे और शाम को फिर वापस यह पशु अपनी छानियों या खर्कों में लौट आते. बताते हैं कई दुधारू पशु जब शाम को घर लौटते तो इनका सारा दूध पहले ही दुहा होता. पहले-पहले तो एकआध पशु के साथ ऐसा हुआ, लेकिन धीरे-धीरे सभी दुधारू गाय-भैंसों का दूध आश्चर्यजनक रूप से सूखने लगा. ऐसी घटनाओं की गांव में चर्चा फैलनी स्वाभाविक थी और चहुंओर यह चर्चाएं आम हो गईं कि यह कोई देवीय दोष-धाम का परिणाम है. फिर मां जगदी ने अपने चमत्कार दिखाने भी शुरू कर दिए. ग्वाल-बालों को फिर कभी छह महीने की कन्या तो कभी कोई आकाशपरी की तरह यह चमत्कारी शक्ति केमखर्क (केमखर) नामक स्थल पर कन्यारूप में दिखाई देने लगी. बताते हैं कि मां जगदी फिर बच्चों के साथ इस शर्त पर खेलने लगीं कि कोई घर जाकर इस बारे में कुछ नहीं बताएगा. लेकिन ग्वाल-बालों ने इस हकीकत को अपने घरों में बयां कर दिया. कालांतर में फिर श्री बुटेर गंवाण महापुरुष का सपने में मां जगदी से साक्षात्कार हुआ और दूध सूखने आदि सभी रहस्यों से पर्दा हटा. उल्लेखनीय है कि नौज्यूला में जगदी के प्रथम बाकी के रूप श्री बुटेर गंवाण जी का नाम आदर के साथ लिया जाता है. नौज्यूला में श्री बुटेर गंवाण जी के कार्यकाल से ही जगदी के विभिन्न आयोजनोंका आरंभ होता है. फिर हिंदाव के पंचों ने बैठक बुलाई और मां जगदी के अवतरित होने एवं स्थापना को लेकर विचार-मंथन शुरू हुआ और फलस्वरूप जगदी यहां की प्रसिद्ध देवी के रूप में आराध्य बनीं.

बैठक थर्प से पंगरिया तक

जगदी के चमत्कारों की चर्चा दिन-ब-दिन आम होने लगी थी. यह गांव-गांव में चर्चाओं का प्रमुख विषय बन गया था. देवी जगदी की स्थापना को लेकर नौज्यूला के पंचों में बैठकों का सिलसिला शुरू हुआ. इन बैठकों के बारे में भी बैठक स्थल को लेकर कहा जाता है कि पंचों में इस बात को लेकर बहस छिड़ी कि बैठक कहां पर हो. इस बारे में पंगरियाणा-बडियार के मध्यस्थान की खोज शुरू हुई. परंतु उस दौरान पंगरियाणा में आबादी नहीं थी और आज के पंगरियाणा की आबादी पाली अथवा बंजौली में रहती थी. ठीक इसी प्रकार आज के बडियार ग्रामसभा अथवा बगर, सरपोली, चटोली मालगांव की आबादी पंगरिया के आसपास सिमटी थी. फिर कहा जाता है कि बैठक के स्थान के लिए जब पंचों में बहस हुई तो सर्वसम्मति से यह निर्णय हुआ कि तत्कालीन बस्तियों के मध्यस्थल में स्थित स्थान को पंचायत चौक बनाया जाए. हमारे बुजुर्गों ने बताया कि फिर बंजौली से दस हाथ की रस्सी (सामान्यत: जिसे घरों में जूड़ा या पगिला कहा जाता है) से ऊपर की ओर मापा गया और इसी कर्म में ऊपरी बस्ती से नीचे की ओर मापा गया. फिर बीच के मिलन स्थल का नाम पड़ा 'थर्पÓ. थर्प जो आज भी मौजूद है यह श्रमदान के तहत नौज्यूला के पूर्वजों ने तैयार किया है. कहते हैं फिर नौज्यूला की आम पंचायतें इसी थर्प में होने लगीं. आज भी जगदी जात के दिन जगदी जब शिलासौड़ के लिए निकलती है, तो चंद पलों के लिए यहां पर आती है. लेकिन कलांतर में जैसे-जैसे क्षेत्र की आबादी बढ़ी और लोगों के पशुधन के लिए चारे आदि की आवश्यकता बढ़ी, यहां पाली से आसपास के क्षेत्रों में लोगों का विस्तार हुआ. इसी क्रम में पाली से पंगरियाणा सहित नौज्यूला के अन्य क्षेत्रों में लोगों का विस्तार हुआ. फिर जब बस्तियां बदलती हैं तो व्यवस्थाएं बदलनी भी स्वाभाविक हैं और तब फिर पंचायत के लिए पंगरिया के चौक को नियत किया गया. पंगरिया का चौक फिर प्रमुख बैठक स्थल के रूप में चर्चित हुआ.

पूजा विधि एवं व्यवस्थाएं

जगदी के अवतरित होने के बाद मां ने अपनी प्रजा की रक्षा हेतु चत्मकारिक शक्ति का अहसास कराया. फिर जगदी की स्थापना को लेकर पंचों ने सर्व सम्मति से कई निर्णय लिए. बैठक में सबसे पहले इस बात पर चर्चा हुई कि आखिर देवी जगदी की पूजा-विधि कौन करेगा. कहा जाता है कि जगदी की नियमित पूजा एक जटिल प्रश्न था, ऐसे में पंचों ने इस कार्य हेतु वेदों के ज्ञाता थपलियाल वंश के पंडितों के यहां देवी मूर्ति रखने का निर्णय लिया. ऐसे में देवी की विधिवत पूजा, खास पर्वों एवं घड़ी-नक्षत्रों में विशेष पूजा के लिए ागदी की पूजा-पाठ का दायित्व थपलियाल ब्राह्मïणों को दिया गया. बताते यह भी हैं कि जिला पौड़ी के अणथीगांव के थपलियाल वंशी जो ग्यारहगांव हिंदाव के डांग में निवास करते थे वहां से थपलियालों को खासकर जगदी की पूजा-विधि के लिए अंथवालगांव लाया गया.नौज्यूला की पंचों की कमेठी द्वारा नियुक्त थपलियाल ब्राह्मïण जगदी स्थापना से लेकर आज तक जगदी की पूजा-पाठ करते हैं और अंथवाल ब्राह्मणों को जगदी को प्राश्रय देने विशेष स्थान प्राप्त है. अंथवाल ब्राह्मïणों पर देवी जगदी अवतरित भी होती हैं. ïइसी के साथ जगदी के बाकी एवं पूजनविधि पर सार्थक चर्चा के बाद पूस महीने में एक दिन की जात शिलासौड़ में देना तय हुआ. साथ ही प्रत्येक सावन की अठवाड़ को बकरों की बलि शिलासौड़ में देना तय हुआ. अर्थात प्रत्येक साल के कैलेंडर वर्ष में पूस माह (दिसंबर) के शुभ नक्षत्र में एक रात की जात शिलासौड़ में, सावन में अठवाड़ और फिर प्रत्येक १२ साल में होम (महायज्ञ) नारायण में होना निश्चित हुआ. आज तक यह परंपरा के अनुसार होता आ रहा है और ऐसे कोई उल्लेख नहीं मिला कि इन त्यौहारों में कभी कहीं ठहराव आया हो. इसके अलावा बाड़ाहाट (उत्तरकाशी) एवं मयाली कंकण की स्नान-यात्राएं भी सार्वजनिक मन्नतस्वरूप पंचों/कमेटी के निर्णयानुसार समय-समय पर आयोजित की जाती हैं. बैठक में प्रत्येक वर्ष के मार्गशीर्ष महीने के अंत एवं पूस माह की संक्रांति को जात के आयोजन की तिथि संबंधी बैठक का आयोजन होना निश्चित हुआ और आज तक यह परंपरा ओर भी उमंगों के साथ चली आ रही है. संक्रांति के दिन नौज्यूला के पंच अपने गांवों से गाजे-बाजे के साथ बैठक स्थल पंगरिया के चौक में पहुंचते हैं. बैठक के इस दिन पुजारी ब्राह्मïणों द्वारा जगदी जात के लिए विधि-विधान से शुभ मुहूर्त निकाला जाता है. जात की तिथि निकालते समय स्थानीय मौसम एवं परिस्थितियों की समीक्षा भी की जाती है और फिर एक दिन पर सर्वसम्मति से निर्णय लिया जाता है. यहीं से कमेटी पर्चे आदि के माध्यम से पास-पड़ोस की पट्टिïयों में भी जात की तिथि से अवगत कराती है.बदले दौर में सूचना क्रांति के फलस्वरूप जगदी जात की तिथि की सूचना पंचों के निर्णय के चंद सेकेंडों में ही हिंदाव के देश-विदेश में रहने वाले प्रवासियों तक पहुंच जाती है........................

निशाण

निशाण अथवा बड़े आकार के झंडे देवी जगदी के परम प्रिय हैं. यहां भक्त जो मन्नत मांगते हैं, जगदी माता वह निश्चित तौर पर पूरी करती हैं और फिर मनौती पूर्ण होने पर श्रद्धालू निशाण चढ़ावे में जगदी को भेंट करते हैं. यह निशाण जगदी जात के प्रथम दिन ही निकलने वाले भारी-भरकम जात्रा काफिले में गाजे-बाजे के साथ अंथवालगांव में पहुंचाए जाते हैं. यहां जगदी को अर्पण के बाद फिर ये निशाण जगदी की संपत्ति बन जाते हैं, जिनके रखरखाव का दायित्व जगदी कमेटी का बन जाता है. अधिकांश निशाणों को जमा कर कुछ जगदी के साथ शिलासौड़ की जात्रा में शामिल किए जाते हैं. परंपरा के अनुसार जगदी जात की शुरुआत से ही चढ़ावे में चढ़ाए जाने वाले दर्जनों निशाण पंचों की दूर दृष्टि और माता जगदी की सात्विक पूजा के उत्कृष्ट उदाहरण हैं. आज जबकि कई मठ-मंदिरों में चढ़ावे हेतु बलि के नाम पर निरीह पशुओं के वध को रोकना शासन-प्रशासन के लिए कड़ी चुनौती बना हुआ है, ऐसे में हिंदाव के पूर्वजों द्वारा जगदी की भक्ति एवं चढ़ावे के लिए शुरू यह निशाणों की परंपरा सम्पूर्ण राज्यवासियों के लिए प्रेरणादायी है.

दुधादौ

जात की अधिकृत घोषणा यद्यपि पंचों द्वारा संक्रांति को हो जाती है, परंतु संक्रांति से जगदी जात की तिथि तक जो अंतराल होता है इस अंतराल में पूरे नौज्यूला की कुशलता की भी अति आवश्यकता होती है. कहा गया है कि होनी को कोई टाल नहीं सकता है और ऐसी आशंकाओं से कभी इंकार भी नहीं किया जा सकता है. नौज्यूला के पूर्वजों का दुधादौ देने के पीछे भी यही उद्देश्य ज्ञात होता हैै. ताकि दिन जात से पूर्व एक बार पुन: सारी नौज्यूला की रैत-प्रजा की कुशलता की समीक्षा की जा सके. साथ ही क्षेत्र के मौसम एवं अन्य विपरीत परिस्थितियों में कोई आकस्मिक निर्णय लेने की गुंजाइश भी बनी रहे. जात के एक दिन पहले दुधादौ भी एक महत्वपूर्ण रस्म होती है. दुधादौ पंगरियाणा ग्रामसभा के लैणी गांव के नागराजा के बाकी देते हैं. नागराजा के बाकी लैणी से पंगरियाणा आकर एवं यहां के ढोल-दमाऊं वादक घंडियालधार नामक स्थल में आकर विशेष संकेत तालों एवं शंख ध्वनि के माध्यम से अंथवालगांव में पुजारी ब्राह्मïण को इस क्षेत्र की भलाकुशली की सूचना ध्वनि देकर जात की औपचारिक शुरुआत करने का निर्देश देते हैं. ठीक इसी क्रम में अंथवालगांव से भी ढोल-दमाऊं एवं शंख की संकेत ध्वनि का अविवादन किया जाता है और इसे पूरे नौज्यूला की सकुशलता का प्रतीक माना जाता है. कहते हैं फिर दुधादौ के बाद चाहे जो भी घटित हो जाए, जगदी की जात नहीं टलती.

जगदी जात

fदाव पट्टïी के नौज्यूला के एकमात्र प्रमुख सार्वजनिक इस मेले 'जगदी जातÓ की यूं तो संक्रांति से ही तैयारियां शुरू हो जाती हैं, पर दुधादौ से तैयारियां और भी परवान चढ़ जाती हैं. यहां के गांवों में जिनकी मन्नतें होती हैं वे अपने निशाण आदि तैयार कर लेते हैं. हिंदाव से अन्य पट्टिïयों में ब्याही युवती एवं महिलाएं, रिश्तेदार सभी 'मां जगदीÓ के लिए हिंदाव पहुंच जाते हैं. अगले दिन सुबह पौफटते ही जगदी जात
जात का दिन होता है. कमेटी के नामित सदस्य अपने-अपने गांवों से सुबह अंथवालगांव जाते हैं और जगदी की डोली को तैयार करते हैं. ग्रामसभा पंगरियाणा के सरबागी गांव में क्योंकि जगदी का बाकी रहता है, इसलिए गांव में सुबह से ही विशेष हलचल रहती है. जैसे-जैसे सूर्य देव हिमालय की कांठियों को छोड़ गांवों में चटक दस्तक देते हैं, यहां जगदी का बाकी भी अपना श्रृंगार कर तैयार हो जाता है और फिर पंगरियाणा के ढोल वादक बाकी को गाजे-बाजे के साथ घर से पांडवखली अथवा (अब रा.आयुर्वेदिक चि. पंगरियाणा) में लाते हैं. पंगरियाणा के अन्य मान्यवर, कौथिग जाने वाले लोग एवं ढोल वादक भी यहां एकत्र होकर सारे निशाण आदि लेकर अंथवालगांव के लिए प्रस्थान करते हैं. लोगों को घरों से निकलने, बाकी के पहुंचने आदि में लगभग दिन की ११ बज जाती हैं. पंगरियाणा से बाकी के साथ सैकड़ों लोग फिर बीरसौड़ नामक स्थान पर लैंणी अथवा तल्ला पंगरियाणा के लोगों का इंतजार करते हैं. यहां से कई ढोलों की थाप पर दर्जनों रंग-बिरंगे निशाणों (झंडों) के साथ सैकड़ों लोगों का काफिला एक आर्कषक झांकी में तब्दील हो जाता है. आकाश को गुंजायमान बना देने वाले ढोलों की थाप पर पंगरियाणा के श्रद्धालू आगे बढ़ते हैं. पंगरियाणा से आने वाला काफिला पंगरिया के चौक में पहुंचता है. यहां पंगरिया के चौक में ठीक इसी प्रकार झंडे-निशाणों के साथ सरपोली, चटोली, मालगांव, बगर, सौण्याटगांव के मेलार्थी एवं मान्यवर भी अपने ढोल वादकों के साथ पंगरिया के चौक में आते हैं. परंपरा के अनुसार जो भी काफिला यहां पहले पहुंचता है दूसरे क्षेत्र के लोगों का इंतजार करते हैं. जब दोनों क्षेत्र के लोग मिलते हैं तो जगदी जात का उत्साह और भी बढ़ जाता है. पंगरिया से नौज्यूला के दर्जनों ढोल वादकों की अगुवाई में पंक्तिबद्ध होकर श्रद्धालू अंथवालगांव की ओर बढ़ते हैं. पूरे क्षेत्र के लोगों के जुडऩे से काफिला बढ़ता जाता है. बीच-बीच में ढोलवादकों के निकट शब्द माहौल में और भी उल्लासपूर्ण बना देते हैं. लगभग १ बजे दोपहर सभी लोग अंथवालगांव जगदी की 'गिमगिरीÓ में पहुंचते हैं, जहां जगदी को पहले से तैयार कर कमेटी के सदस्य मुस्तैद रहते हैं. यहां पर लोगों द्वारा भेंटस्वरूप निशाणों का जगदी को अर्पण किया जाता है एवं प्रसादस्वरूप चावलरूपी मोती जगदी श्रद्धालुओं को देती है.यहां से फिर जात के लिए जगदी की 'डोलीÓ प्रस्थान करती है, सभी के दर्शनाथ जगदी सबसे पहले अंथवालगांव की देवीखली में पहुंचती है. यहां पर दिनजात का मुख्य मेला लगता है. यहां पर कुछ पलों के लिए जगदी को सार्वजनिक दर्शनार्थ रखे जाने की परंपरा है. जहां श्रद्धालू 'मां जगदीÓ करते हैं. उसके बाद जगदी अंथवालगांव-कुलणा के विभिन्न स्थानों का भ्रमण करते हुए फिर अंथवालगांव के नीचे स्थित नारायण मंदिर में भेंट देती हैं. बिगत सालों से अंथवालगांव में लगने वाला बड़ा मेला भी अब नारायण में ही लगने लगा है, अर्थात जगदी के सार्वजनिक दर्शन भी लोग यहीं पर करते हैं. जगदी जात के इतिहास में कमेटी द्वारा अंथवालगांव में मेले के स्थान में यह पहला परिर्वतन है अन्यथा हमें बुजुर्गों से जो जानकारी मिली उसमें ऐसे स्थान परिवर्तन का जिक्र नहीं मिला. जगदी नारायण में भेंट देने के बाद थर्प में आती है और फिर सीधे पंगरिया के चौक की तरफ रुख करती है. यहां पर एक बार फिर जनसामान्य के दर्शनार्थ जगदी को रखा जाता है और फिर शिला की जात के लिए जगदी आगे बढ़ती है. यहां से फिर जगदी बडियार गांव में प्रवेश करती है, जहां ज्वालपा देवी की कुशल-क्षेम एवं दर्शन देकर अगले पड़ाव की ओर निकल पड़ती है. बडियार में जगदी के जाने के पीछे भी हमें बुजुर्गों ने जो बातें बताई उससे यह ज्ञात हुआ कि यहां देवी जगदी की सखी ज्वालपा देवी का निवास स्थान है, इसलिए जगदी ज्वालपा देवी से मिलने हर साल जात के दिन यहां आती है. फिर जगदी अपने महत्वपूर्ण पड़ावों को तय कर रात को शिलासौड़ में दस्तक देती है.

फिर उत्तराखंड की उपेक्षा

केन्द्रीय मंत्रिमंडल के दूसरे विस्तार में भी उत्तराखंड को कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला है. जिससे पहाड़ की जनता निराश है. केंद्र सरकार में उत...