Friday, July 2, 2010

जगदी का हिंदाव आगमन

शरद ऋतु के बाद शिशिर ऋतु जैसे ही शुरू होने लगती है पर्वतीय इलाकों में ठंड का साम्राज्य शुरू हो जाता है और फिर जैसा कि हम जानते हैं, जंगलों में विचरण करने वाले भेड़-बकरी व घोड़े पालक एवं वन गूजर अपने गृहनगर या मैदानी क्षेत्रों की ओर लौटने लगते हैं. उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र की यह बुग्यालों की धरती फिर ३-४ महीनों के लिए बर्फ के आगोश में समा जाती है. पहाड़ की समूची पर्वत शृंखलाओं के बर्फ की चादर ओढ़ लेने के बाद मयाली कंकण की वादियों के सुनसान होने के मंजर की भी कल्पना की जा सकती है. बुजुर्गों से हमें जो जानकारी मिली, बताते हैं कि ऐसे वक्त जब पहाड़ से भेड़-बकरी पालक एवं महर लोग अपने गांवों को लौटते तो जगदी भी मयाली कंकण से पंवाली कांठा तक आई. लेकिन बताते हैं जगदी का मन यहां भी नहीं लगा और जगदी ने हिंदाव की ओर प्रस्थान किया.कहते हैं जगदी के हिंदाव आगमन की राह में फिर जो भी बाधाएं आईं जगदी ने उन्हें पार कर अपना रास्ता तय किया. जगदी के हिंदाव आगमन के सफर में यहां के दैत्यों ने रास्ता रोकने के कई असफल प्रयास किए. हिंदाव की रैत-प्रजा के रक्षार्थ गांवों की तरफ बढ़तीं जगदी के रास्ते में आने वाली बाधाओं का जगदी ने विनाश कर अपना रास्ता तय किया. बताते हैं जगदी के रास्ते में प्रमुख बाधा खड़ी करने वाला एक दैत्य खटकेश्वर (सिलेश्वर) भी था. वर्तमान खटकड़़ नामक स्थल का दैत्य जगदी के हिंदाव आगमन के रास्ते में बाधाएं पैदा करने लगा, जिसका जगदी ने अपने खटक से संहार कर लिया. कहते हैं जगदी ने खटकेश्वर दैत्य का सिर अपने खटक से काट दिया, जो शिलासौड़ नामक स्थान पर गिरा, जिसमें मां जगदी शेर के घोड़े में सवार होकर अवतरित हुईं और यह स्थान शिलासौड़ के नाम से विख्यात हुआ. शिलासौड़ में इस पत्थर में बने मंदिर में आज भी मां जगदी शेर के घोड़े में सवार मूॢत रूप में विराजमान हैं. यहां पत्थर की विशाल शिला जो दैत्य का सिर बताया जाता है, पर स्थापित जगदी का मंदिर आज भी शेर के घोड़े में सवार मां जगदी का स्पष्ट आभास कराता है.शिलासौड़ में जगदी के अवतरण के साथ तब बारी थी नौज्यूला के लोगों को अपने (जगदी) प्रकट होने का अहसास कराने की. कहते हैं कि यहां हिंदाव की आबादी उस दौर में पाली के आसपास निवास करती थी. यहां के लोग अपनी गाय-भैंसों को सुबह चराने जंगल में छोड़ देते थे और शाम को फिर वापस यह पशु अपनी छानियों या खर्कों में लौट आते. बताते हैं कई दुधारू पशु जब शाम को घर लौटते तो इनका सारा दूध पहले ही दुहा होता. पहले-पहले तो एकआध पशु के साथ ऐसा हुआ, लेकिन धीरे-धीरे सभी दुधारू गाय-भैंसों का दूध आश्चर्यजनक रूप से सूखने लगा. ऐसी घटनाओं की गांव में चर्चा फैलनी स्वाभाविक थी और चहुंओर यह चर्चाएं आम हो गईं कि यह कोई देवीय दोष-धाम का परिणाम है. फिर मां जगदी ने अपने चमत्कार दिखाने भी शुरू कर दिए. ग्वाल-बालों को फिर कभी छह महीने की कन्या तो कभी कोई आकाशपरी की तरह यह चमत्कारी शक्ति केमखर्क (केमखर) नामक स्थल पर कन्यारूप में दिखाई देने लगी. बताते हैं कि मां जगदी फिर बच्चों के साथ इस शर्त पर खेलने लगीं कि कोई घर जाकर इस बारे में कुछ नहीं बताएगा. लेकिन ग्वाल-बालों ने इस हकीकत को अपने घरों में बयां कर दिया. कालांतर में फिर श्री बुटेर गंवाण महापुरुष का सपने में मां जगदी से साक्षात्कार हुआ और दूध सूखने आदि सभी रहस्यों से पर्दा हटा. उल्लेखनीय है कि नौज्यूला में जगदी के प्रथम बाकी के रूप श्री बुटेर गंवाण जी का नाम आदर के साथ लिया जाता है. नौज्यूला में श्री बुटेर गंवाण जी के कार्यकाल से ही जगदी के विभिन्न आयोजनोंका आरंभ होता है. फिर हिंदाव के पंचों ने बैठक बुलाई और मां जगदी के अवतरित होने एवं स्थापना को लेकर विचार-मंथन शुरू हुआ और फलस्वरूप जगदी यहां की प्रसिद्ध देवी के रूप में आराध्य बनीं.

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