Friday, July 2, 2010

जगदी जात

fदाव पट्टïी के नौज्यूला के एकमात्र प्रमुख सार्वजनिक इस मेले 'जगदी जातÓ की यूं तो संक्रांति से ही तैयारियां शुरू हो जाती हैं, पर दुधादौ से तैयारियां और भी परवान चढ़ जाती हैं. यहां के गांवों में जिनकी मन्नतें होती हैं वे अपने निशाण आदि तैयार कर लेते हैं. हिंदाव से अन्य पट्टिïयों में ब्याही युवती एवं महिलाएं, रिश्तेदार सभी 'मां जगदीÓ के लिए हिंदाव पहुंच जाते हैं. अगले दिन सुबह पौफटते ही जगदी जात
जात का दिन होता है. कमेटी के नामित सदस्य अपने-अपने गांवों से सुबह अंथवालगांव जाते हैं और जगदी की डोली को तैयार करते हैं. ग्रामसभा पंगरियाणा के सरबागी गांव में क्योंकि जगदी का बाकी रहता है, इसलिए गांव में सुबह से ही विशेष हलचल रहती है. जैसे-जैसे सूर्य देव हिमालय की कांठियों को छोड़ गांवों में चटक दस्तक देते हैं, यहां जगदी का बाकी भी अपना श्रृंगार कर तैयार हो जाता है और फिर पंगरियाणा के ढोल वादक बाकी को गाजे-बाजे के साथ घर से पांडवखली अथवा (अब रा.आयुर्वेदिक चि. पंगरियाणा) में लाते हैं. पंगरियाणा के अन्य मान्यवर, कौथिग जाने वाले लोग एवं ढोल वादक भी यहां एकत्र होकर सारे निशाण आदि लेकर अंथवालगांव के लिए प्रस्थान करते हैं. लोगों को घरों से निकलने, बाकी के पहुंचने आदि में लगभग दिन की ११ बज जाती हैं. पंगरियाणा से बाकी के साथ सैकड़ों लोग फिर बीरसौड़ नामक स्थान पर लैंणी अथवा तल्ला पंगरियाणा के लोगों का इंतजार करते हैं. यहां से कई ढोलों की थाप पर दर्जनों रंग-बिरंगे निशाणों (झंडों) के साथ सैकड़ों लोगों का काफिला एक आर्कषक झांकी में तब्दील हो जाता है. आकाश को गुंजायमान बना देने वाले ढोलों की थाप पर पंगरियाणा के श्रद्धालू आगे बढ़ते हैं. पंगरियाणा से आने वाला काफिला पंगरिया के चौक में पहुंचता है. यहां पंगरिया के चौक में ठीक इसी प्रकार झंडे-निशाणों के साथ सरपोली, चटोली, मालगांव, बगर, सौण्याटगांव के मेलार्थी एवं मान्यवर भी अपने ढोल वादकों के साथ पंगरिया के चौक में आते हैं. परंपरा के अनुसार जो भी काफिला यहां पहले पहुंचता है दूसरे क्षेत्र के लोगों का इंतजार करते हैं. जब दोनों क्षेत्र के लोग मिलते हैं तो जगदी जात का उत्साह और भी बढ़ जाता है. पंगरिया से नौज्यूला के दर्जनों ढोल वादकों की अगुवाई में पंक्तिबद्ध होकर श्रद्धालू अंथवालगांव की ओर बढ़ते हैं. पूरे क्षेत्र के लोगों के जुडऩे से काफिला बढ़ता जाता है. बीच-बीच में ढोलवादकों के निकट शब्द माहौल में और भी उल्लासपूर्ण बना देते हैं. लगभग १ बजे दोपहर सभी लोग अंथवालगांव जगदी की 'गिमगिरीÓ में पहुंचते हैं, जहां जगदी को पहले से तैयार कर कमेटी के सदस्य मुस्तैद रहते हैं. यहां पर लोगों द्वारा भेंटस्वरूप निशाणों का जगदी को अर्पण किया जाता है एवं प्रसादस्वरूप चावलरूपी मोती जगदी श्रद्धालुओं को देती है.यहां से फिर जात के लिए जगदी की 'डोलीÓ प्रस्थान करती है, सभी के दर्शनाथ जगदी सबसे पहले अंथवालगांव की देवीखली में पहुंचती है. यहां पर दिनजात का मुख्य मेला लगता है. यहां पर कुछ पलों के लिए जगदी को सार्वजनिक दर्शनार्थ रखे जाने की परंपरा है. जहां श्रद्धालू 'मां जगदीÓ करते हैं. उसके बाद जगदी अंथवालगांव-कुलणा के विभिन्न स्थानों का भ्रमण करते हुए फिर अंथवालगांव के नीचे स्थित नारायण मंदिर में भेंट देती हैं. बिगत सालों से अंथवालगांव में लगने वाला बड़ा मेला भी अब नारायण में ही लगने लगा है, अर्थात जगदी के सार्वजनिक दर्शन भी लोग यहीं पर करते हैं. जगदी जात के इतिहास में कमेटी द्वारा अंथवालगांव में मेले के स्थान में यह पहला परिर्वतन है अन्यथा हमें बुजुर्गों से जो जानकारी मिली उसमें ऐसे स्थान परिवर्तन का जिक्र नहीं मिला. जगदी नारायण में भेंट देने के बाद थर्प में आती है और फिर सीधे पंगरिया के चौक की तरफ रुख करती है. यहां पर एक बार फिर जनसामान्य के दर्शनार्थ जगदी को रखा जाता है और फिर शिला की जात के लिए जगदी आगे बढ़ती है. यहां से फिर जगदी बडियार गांव में प्रवेश करती है, जहां ज्वालपा देवी की कुशल-क्षेम एवं दर्शन देकर अगले पड़ाव की ओर निकल पड़ती है. बडियार में जगदी के जाने के पीछे भी हमें बुजुर्गों ने जो बातें बताई उससे यह ज्ञात हुआ कि यहां देवी जगदी की सखी ज्वालपा देवी का निवास स्थान है, इसलिए जगदी ज्वालपा देवी से मिलने हर साल जात के दिन यहां आती है. फिर जगदी अपने महत्वपूर्ण पड़ावों को तय कर रात को शिलासौड़ में दस्तक देती है.

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