नंदू की रौतेली जगदी की उत्पत्ति के संबंध में कहा जाता है कि देवकी की संतान के द्वारा कंस का वध निश्चित था. देवकी की आठवीं संतान द्वारा अपने विनाश की भविष्यवाणी से कंस ने अपनी गर्भवती बहन देवकी को काल कोठरी में डाल दिया. जैसे-जैसे देवकी के प्रसबकाल के दिन नजदीक आने लगे, कंस ने देवकी और वसुदेव का पहरा और भी कड़ा कर दिया. उधर, नंदू ग्वाल (महर) की पत्नी यशोदा मैया का भी प्रसबकाल नजदीक था. कृष्ण जन्माष्टमी की रात्रि १२ बजे देवकी ने जैसे ही कृष्ण को जन्म दिया, कंस के द्वारपालों, चौकीदारों को कालजाप पढ़ गया. उधर गोकुल में नंदू के घर यशोदा जी एक कन्या को जन्म देती हैं और विधाता के विधानस्वरूप वसुदेव कृष्ण को सूप में रखकर नंदू के घर और यशोदा की देजी (पुत्री) को देवकी के यहां ले जाया गया. जब कृष्ण भगवान सुरक्षित गोकुल में पहुंच गए तत्पश्चात कंस को यह ज्ञात हुआ कि देवकी की आठवीं संंतान ने जन्म ले लिया है, तो फिर कंस के विनाश की वही भविष्यवाणी कंस के कानों में गंूजती है, जिसमें देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवीं संतान कंस के अस्तित्व को हमेशा के लिए मिटा देगी. कंस इसी पल देवकी की आठवीं संतानरूपी कन्या को अपने कब्जे में लेकर पत्थर की शिला पर पटखने का प्रयास करता है, किंतु देवीय शक्ति के आगे आसुरी शक्ति का तो विनाश लिखा जा चुका था. कंस के हाथ से यह कन्या बिजली के समान निकलकर आकाश में समाहित होती है. कुदरत के खेल में तो पापी कंस का अंत तय हो गया था और तब जोगमाया जगदम्बा रूपी कन्या बरास्ता केदारकांठा मयाली कंकण में जगदी के रूप में प्रकट होती हैं.यही मयाली कंकण हिंदाव की जगदी के उत्पत्तिस्थल के रूप में विख्यात है. मयाली कंकण के बारे में हमारे पूर्वजों ने जगदी के प्राकट्य को लेकर हमें जो जानकारी दी, उसके अनुसार टिहरी गढ़वाल के भिलंग (गंवाणा) के पशुचारकों सहित यहां पहुंचने वाले भेड़-बकरी पालकों को सर्व प्रथम मां जगदी (जगदम्बा) ने मयाली कंकण में अपनी उपस्थिति का आभास कराया. कहा गया है कि मयाली कंकण में बुग्यालों की इस धरती पर जगदी ने सर्वप्रथम सोने के कंकणों के रूप में अपनी मायावी शक्ति का परिचय कराया. मयाली कंकण में सोने के कंकण सर्व प्रथम इन भेड़-पशु पालकों को जगह-जगह बिखरे मिले. इन्हें समझने में इन्हें कही समय लगा, परंतु मायावी कंकणों का रहस्य जगदी के चमत्कारों के साथ खुलता गया और तब मां जगदी ने इन्हें दर्शन दिए. कहते हैं उसके बाद इन भेड़-बकरी पालकों की रक्षा का दायित्व मानों जगदी ने अपने ऊपर ले लिया. हर वर्ष चौमासा सीजन में ये भेड़-बकरी पालक अपने पशुधन के साथ मयाली कंकण की धरती पर आया-जाया करते, ठीक इसी रूप में जैसे पालसी/गद्दी एवं वन गूजर भारी संख्या में आज भी शीत ऋतु की समाप्ति और वसंत के आगमन पर उत्तराखंड के वनों में आते-जाते हैं. बताते हैं कि सोने के यह मायावी कंकण मयाली कंकण जाने वाले पशुपालक रक्षासूत्र के रूप में धारण करते थे. शरद ऋतु के बाद फिर ये पशुपालक स्वयं एवं अपने पशुधन की वापसी के समय इन कंकणों को वहीं रख अपने घरों लौटते.
Friday, July 2, 2010
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