Friday, June 18, 2010
स्मरणीय है मयाली कंकण की यात्रा
गदी के उत्पत्ति स्थल मयाली कंकण के बारे में बुजुर्गों से सुना था. जब सुने हुए किसी धार्मिक स्थल का जीवन से प्रत्यक्ष साक्षात्कार होता है, तो एक सुखद अनुभूति स्वाभाविक है. किसी भी जगदी भक्त के लिए मयाली कंकण पहुंचना जीवन का अतिमहत्वपूर्ण सुखद छण है. परिजनों की जुबानी इस स्थल का वर्णन सुना था. हां, यहां पहुंचना कठिन जरूर है. मां जगदी की मयाली कंकण यात्रा में जब हम लोग नौज्यूला से चले तो लगभग ५०० श्रद्धालू मयाली कंकण के लिए जगदी के साथ निकले. जगदी का बाकी श्री रघुबीर सिंह नेगी, तत्कालीन पुजारी श्री कमलनयन थपलियाल जी, जगदी समिति अध्यक्ष श्री रघुबीर सिंह रावत एवं जगदी समिति के सदस्य श्री सज्जन सिंह रावत आदि सम्मानित सदस्यों के नेतृत्व में यह यात्रा हुई. अंथवालगांव से जगदी शिलासौड़ लाई गई और रात को पूजा-अर्चना के बाद सुबह होते ही मयाली कंकण यात्रा का प्रस्थान हुआ. हिंदाव से तिमुण्डा, होते हुए इस कठिन यात्रा में लोग हर्षोल्लास के साथ पहाड़ की पगडंडियों पर कदम बढ़ाते रात्रि विश्राम के लिए पंवालीकांठा पहुंचे. यहां जाकर लोग रास्ते चलते-चलते काफी थक गए थे. लगातार पहाड़ों पर यात्रा करना मुश्किल कार्य होता है, किंतु रात में पंवालीकांठा में श्री भगवान सिंह ठेकेदार जी की तरफ से भोजन व्यवस्था की गई थी. रात को यहीं रुके, यहां रातभर पूजा-पाठ हुआ और फिर दूसरी सुबह यात्रा अगले पड़ाव की ओर बढ़ी. पंवालीकांठा के बाद एक तरफ मखमली बुग्यालों की रमणिकता अपनी ओर आकर्षित करती है, तो दूसरी ओर यात्री की शारीरिक क्षमता जवाब देने लगती है. पंवालीकांठा तक जाने के बाद कई लोग थक के चूर हो गए थे, लेकिन श्रद्धालू मयाली कंकण जाने के दृढ़ इरादे के साथ आगे बढ़ रहे थे. कुराणगांव के नगेला के बाकी जी तो उम्रदराज होने के कारण पंवाली में रुक गए थे. यहां पर हम लोग आगे बढ़े किंतु बाकी जी यहीं रहे, यहां फिर भिलंग के पशु पलकों ने बाकी जी की सेवा की और अपने -न्योते-पत्रे पूछे. पंवालीकांठा के बाद राजबोंगा होते हुए ताली की खड़ी धार पर चलना वाकई रोंगटे खड़े करने वाला था. काफी चलने के बाद अबिंडा आया. अबिंडा से त्रिजुगीनारायण का रास्ता जाता है. यहां से लगभग २०० यात्री थक कर त्रिजुगीनारायण के रास्ते वापस लौट चुके थे. यहां से हम प्यटारा पहुंचे. प्यटारा में कुराणगांव के बकरी-पशुधन के प्रसिद्ध उद्यमी श्री रघुबीर सिंह जी की तरफ से भोजन व्यवस्था की गई थी. रात्रि विश्राम यहीं हुआ. प्यटारा में रात खुले आसमान के नीचे बुग्यालों की खूबसूरत धरती पर गुजारी. यहां रातभर रहने के बाद तीसरे दिन मयाली कंकण पहुंचना होता है. प्यटारा के बाद सुबह मयाली कंकण के लिए प्रस्थान किया. यहां से अंदाजन 8-9 किलोमीटर का रास्ता तय करने के बाद ल्वारगला आता है. यहां पर फिर सभी यात्रियों की गिनती हुई. 300 श्रद्धालू यात्रा में बने हुए थे. यहां पर जगदी ने सभी श्रद्धालुओं की रखवाली की. यहां से आगे ऐसा कोई बन-बना रास्ता नहीं है. अंदाजे के बल पर आगे बढ़ते हैं. इस रास्ते का पता भी कुराणगांव के श्री रघुबीर सिंह जी के बकरी पालकों ने लगाया था. अंदाज के बल पर बुग्यालों, रंग-बिरंगे फूलों से अच्छादित पर्वत चोटियों पर कदम बढ़ाना जितना रोमांचक है उतना ही मुश्किल भरा भी. अंदर से शरीर का पसीना और बाहर से बारिश की रिमझिम फुहारें, शरीर को तरबतर करने वाली होती हैं. जगदी की चमत्कारिक शक्ति, प्रकृति का अद्भुत नाजारा, बर्फ की शिलाओं पर चलते-चलते हिमालय की गोद में पहुंच जाना मानो शरीर की थकान को भूल कर आगे बढऩे का बल देता है. प्यटारा से लगभग १०-१२ किलोमीटर का रास्ता तय करने के बाद मयाली कंकण आता है. मयाली कंकण में केवल ढोल को जगदी के साथ लेके जाते हैं. दमाऊं को यहीं रास्ते में रख देते हैं. भ्रांतियां हैं कि मयाली कंकण में दमाऊं लेके नहीं जाते. मयाली कंकण में जगदी का पत्थर के चबूतरे पर छोटा सा मंदिर पत्थरों से बनाया गया है. इस स्थल पर पहुंचने का रास्ता नहीं है, यह ऊपर से थोड़ा गहराई पर है. अधिकांश लोग लगभग २५-३० फीट फिसलन वाली भीगी घास में फिसलते हुए ही मंदिर स्थल पर पहुंचे. फिर मंदिर में रात्रि जात यानी पूजा-पाठ हुआ. यहां चारों पहर पूजा के बाद सुबह यज्ञ/हवन कर यहां से घर के लिए प्रस्थान किया. अब रास्ता चढ़ता-उतरता था, किंतु यहां से सीधा रात्रि विश्राम के लिए पंवालीकांठा आए. फिर दूसरे दिन सुबह पंवाली से आकर जगदी की विधिवत पूजा के बाद यात्रा की समाप्ति हुई.
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