Wednesday, July 7, 2010
प्रस्तावना
अपनत्व का नाम है मां जगदी
एक विश्वास, एक आस्था एक अपनत्व का नाम है मां जगदी. ठिठुर पूस के बर्फीले महीनों में जब क्षेत्र में कोई विशेष तीज-त्यौहार नहीं होते, तब बैणी-धियाणी अपने मैतियों से मिलने को व्याकुल हो जाती हैं, कहते हैं इसी व्याकुलता को दूर करने वास्ते जगदी मां ने अपने भक्तों से अपनी जिस पूजा का, जिस मेले का आयोजन करने को कहा उसे ही नौज्यूला हिन्दाव की ''जगदी जातÓÓ कहते हैं. देवी-देवता हों या ऋषि-मुनि लगभग सभी का उद्गम स्थल, सभी का तपोस्थल, गंगा जी का स्त्रोत प्रदेश, देवभूमि हमारा उत्तराखंड. इसी उत्तराखंड में बसा है नौज्यूला हिन्दाव, जिसे अपनी ममता के आंचल में समेटे खड़ी है मेरी इस मातृभूमि की रक्षपाल ''मां जगदीÓÓ.बाल्यकाल गांव में विताये अल्प समय की खुद (यादें) मिटाये नहीं मिटती हैं. उस वक्त मेरी हिन्दाव पट्टïी में मुख्य दो ही मेले होते थे- हुलानाखाल का थलु और जगदी की जात, दोनों में खूब भीड़-भाड़ होती थी. देश-प्रदेशों से लोगों का झुण्ड-का- झुण्ड आता था. नाना-नानियों, मामा-मौसियों का लाडला उस भीड़ में कहीं खो न जाय, इसलिए मुझे इन मेलों में नहीं जाने दिया जाता था, पर फिर भी एक बार जिद करके मैं अपनी मौसी के साथ नये कपड़े पहनकर, लैणी- पंगरियाणा के ढोल-दमाऊं, निशाण, तुरी-भंकोरों के साथ मां जगदी के स्थान शिलासौड़ पहुंच ही गया, जहां मुझे पहली बार एक बड़े आकार की शीला (पत्थर) के ऊपर मां जगदी के मंदिर के मां की ढोली के दर्शन हुए. साथ ही मेले में विभिन्न प्रकार का नाच, ढोल-दमाऊं की थाप पर देखने को मिला. फिर समय ने करवट बदली, हमारे पिताजी हम दोनों भाईयों को हजारी मां के साथ मां मुम्बादेवी की स्थली, मुंबई ले आये. परदेश में अपने गांव, अपने सहपाठियों, अपने देवी-देवतों, अपने लोगों की खुद वर्षों तक सताती रही. पर बचपन के संस्कार हमेशा साथ रहे. मां-बाप, बड़ों का आशीर्वाद तथा ''मां जगदीÓÓ के नाम के स्मरण से एक शक्ति की अनुभूति होती है. मन में एक आस्था, एक विश्वास जागता है, जिससे आगे बढऩे की प्रेरणा मिलती है. लगता है कि सच्चे मन से हम जिस काम पर लगेंगे मां जगदी उस काम में हमें सफलता जरूर देगी. हमारी अराध्य देवी 'मां जगदीÓ परम चमत्कारी है. वह अपने हर भक्त के मन की बात को खूब जानती है, ऐसी एक घटना मेरे साथ भी हुई. मैं अपने परमपूज्य आदरणीय श्री माधवान्द भट्टï जी द्वारा निर्मित फिल्म ''सिपैजीÓÓ जिस फिल्म को अभिनय के साथ-साथ मैंने खुद लिखा भी है, की शूटिंग ऋषिकेश में कर रहा था. सिपैजी फिल्म की शुरुआत ही जगदी जात से लौटते बाप-बेटे के सीन से होती है, जो जगदी के चमत्कार पर आधारित है.फिल्म की शूटिंग अपने अंतिम पढ़ाव पर थी. पर मन के एक कोने से काश की आवाज आती थी कि काश हम नौज्यूला हिन्दाव में मां जगदी करके यहां के भी कुछ दृश्यों का फिल्मांकन ''सिपैजीÓÓ में करवाते. एक दिन की शूटिंग में दो शख्स सुबह से ही शूटिंग देखतेे हुए मेरी तरफ भी इशारा कर रहे थे. शूटिंग खत्म होने पर वह दोनों महानुभव मेरे पास आकर पूछने लगे, कहां के हो, मेरा परिचय देेने पर वह दोनों खुश हुए, बोले हम पहचान तो गये पर असमंजस में थे, फिर उन्होंने प्रश्न किया जगदी के यहां नहीं करोगे शूटिंग? मैंने कहा ''जगदी नि चांदी मेरा ख्याल-सी त मिन क्य कनÓÓ. उनमें से जो भाई हुकमसिंह कैन्तुरा थे, कहने लगे कि ऐसा करो कि हम कल जा रहे हैं, तुम परसों टीम के साथ आ जाना, फिर पता नहीं क्या हुआ, मैं पहली बार अपने फिल्म निर्माता आदरणीय भट्टïजी की आज्ञा की अवेहलना करके अपनी टीम को नौज्यूला की तरफ ले गया. रात की एक बजे जगदीगाड पहुंचे. पूरी टीम दिन भर बिना खाये-पिये थी और रात को भी बिना शिकायत के खाये-पिये जगदीगाड पर बस में रात गुजारी और दूसरे दिन ही शूटिंग के लिए तैयार हो गई. मां जगदी की कृपादृष्टि से चार दिन की शूटिंग क्षेत्र में सही ढंग से संपन्न हुई. मैं आभारी हूं कैन्तुरा भाईसाहब का, श्री कुंवरसिंह नेगी जी का और पूरे हिन्दाव नौज्यूला के अपने समस्त बुजुर्गों, भाई-बहनों, बच्चों एवं फिल्म की पूरी टीम का, जिन्होंने मुझे पूर्ण सहयोग दिया. मां जगदी पर आधारित आयोजनों में शामिल होना किसी जगदी भक्त के लिए एक सुनहरा अवसर से कम नहीं है. इसके साथ ही मां जगदी का आशीर्वाद रहा तो शीघ्र ही मां जगदी के चमत्कार की फिल्म भी आप सभी के सामने लाने की कोशिश करूंगा.आपका ज्योति राठौर (अभिनेता)
Friday, July 2, 2010
जगदी की उत्पत्ति
नंदू की रौतेली जगदी की उत्पत्ति के संबंध में कहा जाता है कि देवकी की संतान के द्वारा कंस का वध निश्चित था. देवकी की आठवीं संतान द्वारा अपने विनाश की भविष्यवाणी से कंस ने अपनी गर्भवती बहन देवकी को काल कोठरी में डाल दिया. जैसे-जैसे देवकी के प्रसबकाल के दिन नजदीक आने लगे, कंस ने देवकी और वसुदेव का पहरा और भी कड़ा कर दिया. उधर, नंदू ग्वाल (महर) की पत्नी यशोदा मैया का भी प्रसबकाल नजदीक था. कृष्ण जन्माष्टमी की रात्रि १२ बजे देवकी ने जैसे ही कृष्ण को जन्म दिया, कंस के द्वारपालों, चौकीदारों को कालजाप पढ़ गया. उधर गोकुल में नंदू के घर यशोदा जी एक कन्या को जन्म देती हैं और विधाता के विधानस्वरूप वसुदेव कृष्ण को सूप में रखकर नंदू के घर और यशोदा की देजी (पुत्री) को देवकी के यहां ले जाया गया. जब कृष्ण भगवान सुरक्षित गोकुल में पहुंच गए तत्पश्चात कंस को यह ज्ञात हुआ कि देवकी की आठवीं संंतान ने जन्म ले लिया है, तो फिर कंस के विनाश की वही भविष्यवाणी कंस के कानों में गंूजती है, जिसमें देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवीं संतान कंस के अस्तित्व को हमेशा के लिए मिटा देगी. कंस इसी पल देवकी की आठवीं संतानरूपी कन्या को अपने कब्जे में लेकर पत्थर की शिला पर पटखने का प्रयास करता है, किंतु देवीय शक्ति के आगे आसुरी शक्ति का तो विनाश लिखा जा चुका था. कंस के हाथ से यह कन्या बिजली के समान निकलकर आकाश में समाहित होती है. कुदरत के खेल में तो पापी कंस का अंत तय हो गया था और तब जोगमाया जगदम्बा रूपी कन्या बरास्ता केदारकांठा मयाली कंकण में जगदी के रूप में प्रकट होती हैं.यही मयाली कंकण हिंदाव की जगदी के उत्पत्तिस्थल के रूप में विख्यात है. मयाली कंकण के बारे में हमारे पूर्वजों ने जगदी के प्राकट्य को लेकर हमें जो जानकारी दी, उसके अनुसार टिहरी गढ़वाल के भिलंग (गंवाणा) के पशुचारकों सहित यहां पहुंचने वाले भेड़-बकरी पालकों को सर्व प्रथम मां जगदी (जगदम्बा) ने मयाली कंकण में अपनी उपस्थिति का आभास कराया. कहा गया है कि मयाली कंकण में बुग्यालों की इस धरती पर जगदी ने सर्वप्रथम सोने के कंकणों के रूप में अपनी मायावी शक्ति का परिचय कराया. मयाली कंकण में सोने के कंकण सर्व प्रथम इन भेड़-पशु पालकों को जगह-जगह बिखरे मिले. इन्हें समझने में इन्हें कही समय लगा, परंतु मायावी कंकणों का रहस्य जगदी के चमत्कारों के साथ खुलता गया और तब मां जगदी ने इन्हें दर्शन दिए. कहते हैं उसके बाद इन भेड़-बकरी पालकों की रक्षा का दायित्व मानों जगदी ने अपने ऊपर ले लिया. हर वर्ष चौमासा सीजन में ये भेड़-बकरी पालक अपने पशुधन के साथ मयाली कंकण की धरती पर आया-जाया करते, ठीक इसी रूप में जैसे पालसी/गद्दी एवं वन गूजर भारी संख्या में आज भी शीत ऋतु की समाप्ति और वसंत के आगमन पर उत्तराखंड के वनों में आते-जाते हैं. बताते हैं कि सोने के यह मायावी कंकण मयाली कंकण जाने वाले पशुपालक रक्षासूत्र के रूप में धारण करते थे. शरद ऋतु के बाद फिर ये पशुपालक स्वयं एवं अपने पशुधन की वापसी के समय इन कंकणों को वहीं रख अपने घरों लौटते.
जगदी का हिंदाव आगमन
शरद ऋतु के बाद शिशिर ऋतु जैसे ही शुरू होने लगती है पर्वतीय इलाकों में ठंड का साम्राज्य शुरू हो जाता है और फिर जैसा कि हम जानते हैं, जंगलों में विचरण करने वाले भेड़-बकरी व घोड़े पालक एवं वन गूजर अपने गृहनगर या मैदानी क्षेत्रों की ओर लौटने लगते हैं. उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र की यह बुग्यालों की धरती फिर ३-४ महीनों के लिए बर्फ के आगोश में समा जाती है. पहाड़ की समूची पर्वत शृंखलाओं के बर्फ की चादर ओढ़ लेने के बाद मयाली कंकण की वादियों के सुनसान होने के मंजर की भी कल्पना की जा सकती है. बुजुर्गों से हमें जो जानकारी मिली, बताते हैं कि ऐसे वक्त जब पहाड़ से भेड़-बकरी पालक एवं महर लोग अपने गांवों को लौटते तो जगदी भी मयाली कंकण से पंवाली कांठा तक आई. लेकिन बताते हैं जगदी का मन यहां भी नहीं लगा और जगदी ने हिंदाव की ओर प्रस्थान किया.कहते हैं जगदी के हिंदाव आगमन की राह में फिर जो भी बाधाएं आईं जगदी ने उन्हें पार कर अपना रास्ता तय किया. जगदी के हिंदाव आगमन के सफर में यहां के दैत्यों ने रास्ता रोकने के कई असफल प्रयास किए. हिंदाव की रैत-प्रजा के रक्षार्थ गांवों की तरफ बढ़तीं जगदी के रास्ते में आने वाली बाधाओं का जगदी ने विनाश कर अपना रास्ता तय किया. बताते हैं जगदी के रास्ते में प्रमुख बाधा खड़ी करने वाला एक दैत्य खटकेश्वर (सिलेश्वर) भी था. वर्तमान खटकड़़ नामक स्थल का दैत्य जगदी के हिंदाव आगमन के रास्ते में बाधाएं पैदा करने लगा, जिसका जगदी ने अपने खटक से संहार कर लिया. कहते हैं जगदी ने खटकेश्वर दैत्य का सिर अपने खटक से काट दिया, जो शिलासौड़ नामक स्थान पर गिरा, जिसमें मां जगदी शेर के घोड़े में सवार होकर अवतरित हुईं और यह स्थान शिलासौड़ के नाम से विख्यात हुआ. शिलासौड़ में इस पत्थर में बने मंदिर में आज भी मां जगदी शेर के घोड़े में सवार मूॢत रूप में विराजमान हैं. यहां पत्थर की विशाल शिला जो दैत्य का सिर बताया जाता है, पर स्थापित जगदी का मंदिर आज भी शेर के घोड़े में सवार मां जगदी का स्पष्ट आभास कराता है.शिलासौड़ में जगदी के अवतरण के साथ तब बारी थी नौज्यूला के लोगों को अपने (जगदी) प्रकट होने का अहसास कराने की. कहते हैं कि यहां हिंदाव की आबादी उस दौर में पाली के आसपास निवास करती थी. यहां के लोग अपनी गाय-भैंसों को सुबह चराने जंगल में छोड़ देते थे और शाम को फिर वापस यह पशु अपनी छानियों या खर्कों में लौट आते. बताते हैं कई दुधारू पशु जब शाम को घर लौटते तो इनका सारा दूध पहले ही दुहा होता. पहले-पहले तो एकआध पशु के साथ ऐसा हुआ, लेकिन धीरे-धीरे सभी दुधारू गाय-भैंसों का दूध आश्चर्यजनक रूप से सूखने लगा. ऐसी घटनाओं की गांव में चर्चा फैलनी स्वाभाविक थी और चहुंओर यह चर्चाएं आम हो गईं कि यह कोई देवीय दोष-धाम का परिणाम है. फिर मां जगदी ने अपने चमत्कार दिखाने भी शुरू कर दिए. ग्वाल-बालों को फिर कभी छह महीने की कन्या तो कभी कोई आकाशपरी की तरह यह चमत्कारी शक्ति केमखर्क (केमखर) नामक स्थल पर कन्यारूप में दिखाई देने लगी. बताते हैं कि मां जगदी फिर बच्चों के साथ इस शर्त पर खेलने लगीं कि कोई घर जाकर इस बारे में कुछ नहीं बताएगा. लेकिन ग्वाल-बालों ने इस हकीकत को अपने घरों में बयां कर दिया. कालांतर में फिर श्री बुटेर गंवाण महापुरुष का सपने में मां जगदी से साक्षात्कार हुआ और दूध सूखने आदि सभी रहस्यों से पर्दा हटा. उल्लेखनीय है कि नौज्यूला में जगदी के प्रथम बाकी के रूप श्री बुटेर गंवाण जी का नाम आदर के साथ लिया जाता है. नौज्यूला में श्री बुटेर गंवाण जी के कार्यकाल से ही जगदी के विभिन्न आयोजनोंका आरंभ होता है. फिर हिंदाव के पंचों ने बैठक बुलाई और मां जगदी के अवतरित होने एवं स्थापना को लेकर विचार-मंथन शुरू हुआ और फलस्वरूप जगदी यहां की प्रसिद्ध देवी के रूप में आराध्य बनीं.
बैठक थर्प से पंगरिया तक
जगदी के चमत्कारों की चर्चा दिन-ब-दिन आम होने लगी थी. यह गांव-गांव में चर्चाओं का प्रमुख विषय बन गया था. देवी जगदी की स्थापना को लेकर नौज्यूला के पंचों में बैठकों का सिलसिला शुरू हुआ. इन बैठकों के बारे में भी बैठक स्थल को लेकर कहा जाता है कि पंचों में इस बात को लेकर बहस छिड़ी कि बैठक कहां पर हो. इस बारे में पंगरियाणा-बडियार के मध्यस्थान की खोज शुरू हुई. परंतु उस दौरान पंगरियाणा में आबादी नहीं थी और आज के पंगरियाणा की आबादी पाली अथवा बंजौली में रहती थी. ठीक इसी प्रकार आज के बडियार ग्रामसभा अथवा बगर, सरपोली, चटोली मालगांव की आबादी पंगरिया के आसपास सिमटी थी. फिर कहा जाता है कि बैठक के स्थान के लिए जब पंचों में बहस हुई तो सर्वसम्मति से यह निर्णय हुआ कि तत्कालीन बस्तियों के मध्यस्थल में स्थित स्थान को पंचायत चौक बनाया जाए. हमारे बुजुर्गों ने बताया कि फिर बंजौली से दस हाथ की रस्सी (सामान्यत: जिसे घरों में जूड़ा या पगिला कहा जाता है) से ऊपर की ओर मापा गया और इसी कर्म में ऊपरी बस्ती से नीचे की ओर मापा गया. फिर बीच के मिलन स्थल का नाम पड़ा 'थर्पÓ. थर्प जो आज भी मौजूद है यह श्रमदान के तहत नौज्यूला के पूर्वजों ने तैयार किया है. कहते हैं फिर नौज्यूला की आम पंचायतें इसी थर्प में होने लगीं. आज भी जगदी जात के दिन जगदी जब शिलासौड़ के लिए निकलती है, तो चंद पलों के लिए यहां पर आती है. लेकिन कलांतर में जैसे-जैसे क्षेत्र की आबादी बढ़ी और लोगों के पशुधन के लिए चारे आदि की आवश्यकता बढ़ी, यहां पाली से आसपास के क्षेत्रों में लोगों का विस्तार हुआ. इसी क्रम में पाली से पंगरियाणा सहित नौज्यूला के अन्य क्षेत्रों में लोगों का विस्तार हुआ. फिर जब बस्तियां बदलती हैं तो व्यवस्थाएं बदलनी भी स्वाभाविक हैं और तब फिर पंचायत के लिए पंगरिया के चौक को नियत किया गया. पंगरिया का चौक फिर प्रमुख बैठक स्थल के रूप में चर्चित हुआ.
पूजा विधि एवं व्यवस्थाएं
जगदी के अवतरित होने के बाद मां ने अपनी प्रजा की रक्षा हेतु चत्मकारिक शक्ति का अहसास कराया. फिर जगदी की स्थापना को लेकर पंचों ने सर्व सम्मति से कई निर्णय लिए. बैठक में सबसे पहले इस बात पर चर्चा हुई कि आखिर देवी जगदी की पूजा-विधि कौन करेगा. कहा जाता है कि जगदी की नियमित पूजा एक जटिल प्रश्न था, ऐसे में पंचों ने इस कार्य हेतु वेदों के ज्ञाता थपलियाल वंश के पंडितों के यहां देवी मूर्ति रखने का निर्णय लिया. ऐसे में देवी की विधिवत पूजा, खास पर्वों एवं घड़ी-नक्षत्रों में विशेष पूजा के लिए ागदी की पूजा-पाठ का दायित्व थपलियाल ब्राह्मïणों को दिया गया. बताते यह भी हैं कि जिला पौड़ी के अणथीगांव के थपलियाल वंशी जो ग्यारहगांव हिंदाव के डांग में निवास करते थे वहां से थपलियालों को खासकर जगदी की पूजा-विधि के लिए अंथवालगांव लाया गया.नौज्यूला की पंचों की कमेठी द्वारा नियुक्त थपलियाल ब्राह्मïण जगदी स्थापना से लेकर आज तक जगदी की पूजा-पाठ करते हैं और अंथवाल ब्राह्मणों को जगदी को प्राश्रय देने विशेष स्थान प्राप्त है. अंथवाल ब्राह्मïणों पर देवी जगदी अवतरित भी होती हैं. ïइसी के साथ जगदी के बाकी एवं पूजनविधि पर सार्थक चर्चा के बाद पूस महीने में एक दिन की जात शिलासौड़ में देना तय हुआ. साथ ही प्रत्येक सावन की अठवाड़ को बकरों की बलि शिलासौड़ में देना तय हुआ. अर्थात प्रत्येक साल के कैलेंडर वर्ष में पूस माह (दिसंबर) के शुभ नक्षत्र में एक रात की जात शिलासौड़ में, सावन में अठवाड़ और फिर प्रत्येक १२ साल में होम (महायज्ञ) नारायण में होना निश्चित हुआ. आज तक यह परंपरा के अनुसार होता आ रहा है और ऐसे कोई उल्लेख नहीं मिला कि इन त्यौहारों में कभी कहीं ठहराव आया हो. इसके अलावा बाड़ाहाट (उत्तरकाशी) एवं मयाली कंकण की स्नान-यात्राएं भी सार्वजनिक मन्नतस्वरूप पंचों/कमेटी के निर्णयानुसार समय-समय पर आयोजित की जाती हैं. बैठक में प्रत्येक वर्ष के मार्गशीर्ष महीने के अंत एवं पूस माह की संक्रांति को जात के आयोजन की तिथि संबंधी बैठक का आयोजन होना निश्चित हुआ और आज तक यह परंपरा ओर भी उमंगों के साथ चली आ रही है. संक्रांति के दिन नौज्यूला के पंच अपने गांवों से गाजे-बाजे के साथ बैठक स्थल पंगरिया के चौक में पहुंचते हैं. बैठक के इस दिन पुजारी ब्राह्मïणों द्वारा जगदी जात के लिए विधि-विधान से शुभ मुहूर्त निकाला जाता है. जात की तिथि निकालते समय स्थानीय मौसम एवं परिस्थितियों की समीक्षा भी की जाती है और फिर एक दिन पर सर्वसम्मति से निर्णय लिया जाता है. यहीं से कमेटी पर्चे आदि के माध्यम से पास-पड़ोस की पट्टिïयों में भी जात की तिथि से अवगत कराती है.बदले दौर में सूचना क्रांति के फलस्वरूप जगदी जात की तिथि की सूचना पंचों के निर्णय के चंद सेकेंडों में ही हिंदाव के देश-विदेश में रहने वाले प्रवासियों तक पहुंच जाती है........................
निशाण
निशाण अथवा बड़े आकार के झंडे देवी जगदी के परम प्रिय हैं. यहां भक्त जो मन्नत मांगते हैं, जगदी माता वह निश्चित तौर पर पूरी करती हैं और फिर मनौती पूर्ण होने पर श्रद्धालू निशाण चढ़ावे में जगदी को भेंट करते हैं. यह निशाण जगदी जात के प्रथम दिन ही निकलने वाले भारी-भरकम जात्रा काफिले में गाजे-बाजे के साथ अंथवालगांव में पहुंचाए जाते हैं. यहां जगदी को अर्पण के बाद फिर ये निशाण जगदी की संपत्ति बन जाते हैं, जिनके रखरखाव का दायित्व जगदी कमेटी का बन जाता है. अधिकांश निशाणों को जमा कर कुछ जगदी के साथ शिलासौड़ की जात्रा में शामिल किए जाते हैं. परंपरा के अनुसार जगदी जात की शुरुआत से ही चढ़ावे में चढ़ाए जाने वाले दर्जनों निशाण पंचों की दूर दृष्टि और माता जगदी की सात्विक पूजा के उत्कृष्ट उदाहरण हैं. आज जबकि कई मठ-मंदिरों में चढ़ावे हेतु बलि के नाम पर निरीह पशुओं के वध को रोकना शासन-प्रशासन के लिए कड़ी चुनौती बना हुआ है, ऐसे में हिंदाव के पूर्वजों द्वारा जगदी की भक्ति एवं चढ़ावे के लिए शुरू यह निशाणों की परंपरा सम्पूर्ण राज्यवासियों के लिए प्रेरणादायी है.
दुधादौ
जात की अधिकृत घोषणा यद्यपि पंचों द्वारा संक्रांति को हो जाती है, परंतु संक्रांति से जगदी जात की तिथि तक जो अंतराल होता है इस अंतराल में पूरे नौज्यूला की कुशलता की भी अति आवश्यकता होती है. कहा गया है कि होनी को कोई टाल नहीं सकता है और ऐसी आशंकाओं से कभी इंकार भी नहीं किया जा सकता है. नौज्यूला के पूर्वजों का दुधादौ देने के पीछे भी यही उद्देश्य ज्ञात होता हैै. ताकि दिन जात से पूर्व एक बार पुन: सारी नौज्यूला की रैत-प्रजा की कुशलता की समीक्षा की जा सके. साथ ही क्षेत्र के मौसम एवं अन्य विपरीत परिस्थितियों में कोई आकस्मिक निर्णय लेने की गुंजाइश भी बनी रहे. जात के एक दिन पहले दुधादौ भी एक महत्वपूर्ण रस्म होती है. दुधादौ पंगरियाणा ग्रामसभा के लैणी गांव के नागराजा के बाकी देते हैं. नागराजा के बाकी लैणी से पंगरियाणा आकर एवं यहां के ढोल-दमाऊं वादक घंडियालधार नामक स्थल में आकर विशेष संकेत तालों एवं शंख ध्वनि के माध्यम से अंथवालगांव में पुजारी ब्राह्मïण को इस क्षेत्र की भलाकुशली की सूचना ध्वनि देकर जात की औपचारिक शुरुआत करने का निर्देश देते हैं. ठीक इसी क्रम में अंथवालगांव से भी ढोल-दमाऊं एवं शंख की संकेत ध्वनि का अविवादन किया जाता है और इसे पूरे नौज्यूला की सकुशलता का प्रतीक माना जाता है. कहते हैं फिर दुधादौ के बाद चाहे जो भी घटित हो जाए, जगदी की जात नहीं टलती.
जगदी जात
fदाव पट्टïी के नौज्यूला के एकमात्र प्रमुख सार्वजनिक इस मेले 'जगदी जातÓ की यूं तो संक्रांति से ही तैयारियां शुरू हो जाती हैं, पर दुधादौ से तैयारियां और भी परवान चढ़ जाती हैं. यहां के गांवों में जिनकी मन्नतें होती हैं वे अपने निशाण आदि तैयार कर लेते हैं. हिंदाव से अन्य पट्टिïयों में ब्याही युवती एवं महिलाएं, रिश्तेदार सभी 'मां जगदीÓ के लिए हिंदाव पहुंच जाते हैं. अगले दिन सुबह पौफटते ही जगदी जात
जात का दिन होता है. कमेटी के नामित सदस्य अपने-अपने गांवों से सुबह अंथवालगांव जाते हैं और जगदी की डोली को तैयार करते हैं. ग्रामसभा पंगरियाणा के सरबागी गांव में क्योंकि जगदी का बाकी रहता है, इसलिए गांव में सुबह से ही विशेष हलचल रहती है. जैसे-जैसे सूर्य देव हिमालय की कांठियों को छोड़ गांवों में चटक दस्तक देते हैं, यहां जगदी का बाकी भी अपना श्रृंगार कर तैयार हो जाता है और फिर पंगरियाणा के ढोल वादक बाकी को गाजे-बाजे के साथ घर से पांडवखली अथवा (अब रा.आयुर्वेदिक चि. पंगरियाणा) में लाते हैं. पंगरियाणा के अन्य मान्यवर, कौथिग जाने वाले लोग एवं ढोल वादक भी यहां एकत्र होकर सारे निशाण आदि लेकर अंथवालगांव के लिए प्रस्थान करते हैं. लोगों को घरों से निकलने, बाकी के पहुंचने आदि में लगभग दिन की ११ बज जाती हैं. पंगरियाणा से बाकी के साथ सैकड़ों लोग फिर बीरसौड़ नामक स्थान पर लैंणी अथवा तल्ला पंगरियाणा के लोगों का इंतजार करते हैं. यहां से कई ढोलों की थाप पर दर्जनों रंग-बिरंगे निशाणों (झंडों) के साथ सैकड़ों लोगों का काफिला एक आर्कषक झांकी में तब्दील हो जाता है. आकाश को गुंजायमान बना देने वाले ढोलों की थाप पर पंगरियाणा के श्रद्धालू आगे बढ़ते हैं. पंगरियाणा से आने वाला काफिला पंगरिया के चौक में पहुंचता है. यहां पंगरिया के चौक में ठीक इसी प्रकार झंडे-निशाणों के साथ सरपोली, चटोली, मालगांव, बगर, सौण्याटगांव के मेलार्थी एवं मान्यवर भी अपने ढोल वादकों के साथ पंगरिया के चौक में आते हैं. परंपरा के अनुसार जो भी काफिला यहां पहले पहुंचता है दूसरे क्षेत्र के लोगों का इंतजार करते हैं. जब दोनों क्षेत्र के लोग मिलते हैं तो जगदी जात का उत्साह और भी बढ़ जाता है. पंगरिया से नौज्यूला के दर्जनों ढोल वादकों की अगुवाई में पंक्तिबद्ध होकर श्रद्धालू अंथवालगांव की ओर बढ़ते हैं. पूरे क्षेत्र के लोगों के जुडऩे से काफिला बढ़ता जाता है. बीच-बीच में ढोलवादकों के निकट शब्द माहौल में और भी उल्लासपूर्ण बना देते हैं. लगभग १ बजे दोपहर सभी लोग अंथवालगांव जगदी की 'गिमगिरीÓ में पहुंचते हैं, जहां जगदी को पहले से तैयार कर कमेटी के सदस्य मुस्तैद रहते हैं. यहां पर लोगों द्वारा भेंटस्वरूप निशाणों का जगदी को अर्पण किया जाता है एवं प्रसादस्वरूप चावलरूपी मोती जगदी श्रद्धालुओं को देती है.यहां से फिर जात के लिए जगदी की 'डोलीÓ प्रस्थान करती है, सभी के दर्शनाथ जगदी सबसे पहले अंथवालगांव की देवीखली में पहुंचती है. यहां पर दिनजात का मुख्य मेला लगता है. यहां पर कुछ पलों के लिए जगदी को सार्वजनिक दर्शनार्थ रखे जाने की परंपरा है. जहां श्रद्धालू 'मां जगदीÓ करते हैं. उसके बाद जगदी अंथवालगांव-कुलणा के विभिन्न स्थानों का भ्रमण करते हुए फिर अंथवालगांव के नीचे स्थित नारायण मंदिर में भेंट देती हैं. बिगत सालों से अंथवालगांव में लगने वाला बड़ा मेला भी अब नारायण में ही लगने लगा है, अर्थात जगदी के सार्वजनिक दर्शन भी लोग यहीं पर करते हैं. जगदी जात के इतिहास में कमेटी द्वारा अंथवालगांव में मेले के स्थान में यह पहला परिर्वतन है अन्यथा हमें बुजुर्गों से जो जानकारी मिली उसमें ऐसे स्थान परिवर्तन का जिक्र नहीं मिला. जगदी नारायण में भेंट देने के बाद थर्प में आती है और फिर सीधे पंगरिया के चौक की तरफ रुख करती है. यहां पर एक बार फिर जनसामान्य के दर्शनार्थ जगदी को रखा जाता है और फिर शिला की जात के लिए जगदी आगे बढ़ती है. यहां से फिर जगदी बडियार गांव में प्रवेश करती है, जहां ज्वालपा देवी की कुशल-क्षेम एवं दर्शन देकर अगले पड़ाव की ओर निकल पड़ती है. बडियार में जगदी के जाने के पीछे भी हमें बुजुर्गों ने जो बातें बताई उससे यह ज्ञात हुआ कि यहां देवी जगदी की सखी ज्वालपा देवी का निवास स्थान है, इसलिए जगदी ज्वालपा देवी से मिलने हर साल जात के दिन यहां आती है. फिर जगदी अपने महत्वपूर्ण पड़ावों को तय कर रात को शिलासौड़ में दस्तक देती है.
Tuesday, June 29, 2010
शिलासौड़ में जात या रात्रि जागरण
अग्नि परीक्षा
अग्नि परीक्षा के दौर से भी गुजरी जगादीअस्था और विश्वास के बीच कभी ऐसे भी छण आते हैं, जब मनुष्य का अहम सृष्टि प्रदत्त व्यवस्थाओं को नकारते हुए स्वयं को सर्वोत्तम मानने की भूल कर बैठता है. हिंदाव की जगदी को भी इस दौर से गुजरना पड़ा और अंतत: देवी के चमत्कार के आगे नौज्यूला के लोग नतमस्तक हुए. हमारे बुजुर्गों ने जगदी सौड़ से मेला समापन के बाद बिना पीछे मुड़े भागने का रहस्योद्घाटन करते हुए बताया कि एक बार जब जगदी की जात मेले के समापन से पूर्व शिलासौड़ में सभी बाकियों पर देवी-देवता अवतरित हुए तो मंदिर परिक्रमा के दौरान जगदी के बाकी की टक्कर से स्थानीय पंच अध्वाण महापुरुष (तत्कालीन संयाणा) की टोपी सिर से नीचे जमीन पर गिर गई. अपनी टोपी के नीचे गिरने को अपना अपमान समझते हुए संयाणा जी ने निर्णय दिया कि देवता की सच्चाई की होनका साधना (अग्नि परीक्षा) ली जाएगी. पंचों नेे इस निर्णय के मुताबिक आस-पास से बड़ी मात्रा में लकडिय़ां एकत्र कर 'होनकाÓ की तैयारी की. बताते हैं जब अग्नि प्रचंड भभकने लगी फिर ढोल बजाकर जगदी की अग्नि परीक्षा का आह्वïान किया गया. मायावी माया के लिए यह ऐसी घड़ी थी कि इंसानों और देवताओं के बीच के अंतर को मूर्त रूप में सिद्ध कर जनविश्वास पर देवशक्ति की छाप छोडऩी थी. अत: जगदी अपने बाकी पर स्वयं अवतरित होकर ढोल गर्जना के साथ आग की लपटों में समा गई. जनश्रुति है कि जैसे ही जगदी का बाकी पत्थर की शिला से अग्रि में कूदा सारे लोग वहां से भाग खड़े हुए.
12 वर्ष के बाद होता है जगदी का जगदी का महायज्ञ
होम १२ वर्षों के अंतराल पर आयोजित किया जाता है. जगदी का महायज्ञ 'होमÓनौज्यूला का सबसे बड़ा प्रमुख यज्ञ है, जिसमें नौज्यूला के सभी थोकों के मान्यवर रोज यज्ञ में कई ब्राह्मïणों के मंत्रोचार के साथ आहूतियां देते हैं. होम के लिए पंचों की विशेष बैठकें होती हैं, जिसमें प्रत्येक परिवारों पर फांट (चंदा) निर्धारित कर कमेटी चंदा जमा करने की सुनिश्चिता तय करती है. महायज्ञ की पंचांगसम्मत शुभ मुहूर्त के मद्देनजर तिथि निर्धारित होती है. नारायण में फिर सारी तैयारियों के बाद होम शुरू होता है. जिस वर्ष होम होता है उस वर्ष जगदी शिलासौड़ से सीधे क्षेत्र भ्रमण पर निकल पड़ती है और प्रत्येक घरों में जाकर प्रजा की सुध लेती है. लोग अपने आंगन में जगदी का जर्बदस्त स्वागत करते हैं. देवी-बाकियों को पूजा-पिठाईं भेंटकर परिवार के सुख-चैन की कामना करते हैं. दिन भर गांव में प्रत्येक घरों की शुध लेने के बाद एक रात देवी उसी गांव में निवास करती हैं और गांव में सार्वजनिक प्रसाद भंडारे का आयोजन गांववासियों द्वारा किया जाता है. कई गांवों में चढ़ावे स्वरूप बकरे भी जगदी को भेंट किए जाते हैं. एक गांव का भ्रमण पूर्ण होने पर जगदी अगले पड़ाव की ओर रुख करती है और फिर इसी प्रकार सभी घरों एवं स्थानीय देवी-देवताओं के मंदिरों में भेंट देती हैं. जिस गांव में जगदी दस्तक देती है उस गांव के लोग गाजे-बाजे के साथ जगदी का स्वागत करते हुए गांव की सीमा तक जगदी के साथ-साथ चलते हैं. साथ ही कमेटी के सदस्य एवं प्रमुख बाकी दिनजात से ही जगदी के साथ मौजूद रहते हैं. इसी प्रकार पूरी प्रजा दर्शन के बाद जगदी यज्ञस्थल नारायण में पूजा के लिए विराजमान होती है. ९ दिनों तक चलने वाले होम में प्रत्येक दिन के कार्यक्रम निर्धारित होते हैं और व्यवस्थित क्रम में ९ दिनों तक जारी रहते हैं.
होम का प्रमुख ओहदा था जगपति
किसी भी कार्य की सकुशल संचालन के लिए पहली आवश्यकता होती किसी सेनापति की, जिसके नेतृत्व में आयोजित कार्यक्रम को निर्विघ्न संपन्न कराया जा सके. पूर्वजों द्वारा स्थापित इस भव्य सार्वजनिक यज्ञ (होम) के लिए भी नेतृत्व हेतु किसी एक व्यक्ति को 'जगपतिÓ नियुक्त करने की परंपरा शुरू हुई, लेकिन जगपति अपने नाम के अनुरूप होम संचालित करने का एक अतिविशिष्टि ओहदा था. सारे कार्यक्रम जगपति के निर्देश पर होते थे और इस पद पर यहां के नौज्यूला के प्रतिष्ठत व्यक्ति को आसीन किया जाता था. कालांतर में विभिन्न थोकों के विस्तार होने से व्यवस्थाओं में भी परिर्वतन हुए.
होम का प्रमुख आकर्षण जल घड़ी
हमारी हिंदू संस्कृति में कलश अथार्त कुंभ का बड़ा महत्व है. हिंदृ रीति-रिवाजों जैसे शादी-विवाह, पूजा-पाठ सहित सभी आवश्यक क्रियाओं में जलकुंभ कहीं न कहीं प्रमुख रूप से शामिल किए जाते हैं. उतराखंड में पांडव लीला एवं सार्वजनिक पूजाओं में कार्यक्रम संपन्न होने से पूर्व या अंतिम दिन प्रात:काल में जलघड़ी का विशेष आयोजन किया जाता है. नारायण मंदिर में होम के अंतिम दिन जलघड़ी की शोभायात्रा होम का विशेष आकर्षण है. हजारों दर्शकों से खच्चाखच भरे सीढ़ीनुमा खेतों के बीच मां जगदम्बा की डोली की अगुवाई में जलघड़ी की शोभायात्रा अति दर्शनीय होती है. जगदी की शोभायात्रा दर्जनों ढोल-नगाढ़ों के बीच नारायण मंदिर से कलश भरने के लिए स्थानीय जलस्रोत के लिए निकलती है. यहां जलस्रोत से मंत्रोच्चार के साथ जगदी स्नान कर अन्य लोग भी इस पवित्र जल की बूंदों से अपने को पवित्र कर धन्य समझते हैं. स्नान आदि के बाद जलघड़ी को भरकर जगदी का बाकी इसे सिर पर धारण कर मंदिर की ओर लौटते हैं. सैकड़ों लोगों द्वारा पंक्तिबद्ध होकर ऊपर से श्वेत एवं रंगीन वस्त्रों से ढंकी जलघड़ी की शोभायात्रा इस दौरान अति मनोहारी छटा विखेरती है.
संचालन के लिए नौज्यूला के पंचों के 16 गांवों की कमेटी
हिंदाव की जगदी यद्यपि क्षेत्र की एकमात्र प्रमुख सार्वजनिक देवी है, परंतु जात, महायज्ञ, पूजा आदि के सफल संचालन के लिए नौज्यूला के पंचों के 16 गांवों की 32 सदस्यीय समिति बनाई गई है. इस समिति का नियत कार्यकाल खत्म होने पर नई समिति चयनित की जाती है. कमेटी में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, कोषाध्यक्ष के साथ ही प्रत्येक थोक के दो लोग सक्रिय सदस्य के रूप में चुने जाते हैं. जगदी जात एवं अन्य सभी कार्यों को कुशलतापूर्वक संपन्न कराना कमेटी की प्रमुख जिम्मेदारी है. कमेटी का दायित्व होता है कि जब एक बार जगदी की जात या अन्य कार्यक्रम तय हो जाएं, तो फिर चाहे कोई भी बाधा रास्ते में क्यों न आ जाए, कार्यक्रम को संपन्न कराना है. जगदी जात के अवसर पर चाहे जगदी का शृंगार करना हो, या फिर शृंगार के बाद बाहर गिमगिरी पर निकालना हो, कमेटी के सदस्य तत्परता के साथ अपने कार्यों को अंजाम देते हैं. जगदी की यात्रा में कमेटी के सदस्य बिल्कुल एक तरह से जगदी के लिए सुरक्षा घेरा बनाकर जहां जगदी जाती है, वहां जगदी के साथ चलते हैं. जगदी के कार्यक्रमों की शुरुआत से लेकर समापन तक की जिम्मेदारी कमेटी के लोगों की होती है. नौज्यूला के पंचों की उक्त कमेटी जगदी की डोली, जगदी के बाकी सहित अन्य प्रतिष्ठित बाकियों सहित जात एवं अन्य कार्यक्रमों की सुनिश्चत समापन हेतुमुख्य आधार स्तंभ है. इसीलिए कमेटी में समिति के उच्च पदों पर नौज्यूला के प्रतिष्ठित या सयाणे जैसे व्यक्तित्व ही आसीन होते थे और इनका मकसद जगदी जात सहित सभी कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक संपन्न करना ही होता था.
तांत्रिक का दुस्साहस
बुजुर्ग जनों से जब जगदी के विषय में हमने बातें शुरू कीं तो जगदी से जुड़े विभिन्न प्रसंग सामने आए. बताते हैं कि एक समय किन्हीं अपरिहार्य कारणों से जगदी की चोरी हो गई थी. जगदी स्नान हेतु बाड़ाहाट उत्तरकाशी गई थी. वहां से जब जगदी स्नान कर वापस लौटी तो भौंणा में यह तय हुआ कि जगदी अपनी चोरी का पता खुद लगाएगी. पंचों ने इस चोरी को जगदी के संज्ञान में डाला और जगदी सेे अपने चुराए गए सामान को वापस पाने का आह्वïान किया. उधर, जहां अंथवालगांव में कथित तौर पर यह सामान रखा गया था उस घर में पंचों के इस निर्णय की भनक लग कर हड़कम्प मच गया. बताते हैं कि इस दौर में अंथवालगांव निवासी एक ढोल बाधक तंत्र-मंत्र विद्या का ज्ञाता था, इस चोरी के इल्जाम से बचने के लिए वह परिवार इस मंत्र-तंत्र वाले के पास गया और संकट की इस घड़ी में अपनी लाज बचाने की प्रार्थना की. इस ढोल बाधक ने उक्त व्यक्ति को रक्षा का आश्वासन दिया और बात को गोपनीय रखने की सलाह दी. बताते हैं फिर जैसे ही भौंणा से जगदी की डोली तय समयानुसार अंथवालगांव की और बढ़ी जगदी पर दिवांश (अवतरण) ऊफान पर था. जैसे-जैसे जगदी अंथवालगांव की ओर बढ़ी, तब लोगों में यह उत्सुकता और भी बढ़ गई कि जगदी किस घर में चोरी का सामान रखे होने का इशारा करती है. किंतु बताते हैं जैसे ही डोली अंथवालगांव पहुंची वैसे ही वह तांत्रिक ढोलवादक जगदी के आदर के लिए डोली की अगवानी करने लगा. ढोलवादक के मंत्रों के कारण जैसे ही जगदी आगे बढ़ी, जगदी के कपड़े उतर गए. इस घटना से पंचों में सन्नाटा फैल गया और अफरातफरी के बीच जगदी की चोरी का खुलासा नहीं हो सका.फिर बताते हैं कि उस दिन के बाद यह तांत्रिक एक दिन भी अंथवालगांव नहीं टिका और यहां से हमेशा के लिए रफ्फूचक्कर हो गया. खोजबीन से पता चला कि इस वादक के वंशज चमोली जिले के नीती-माणा में हैं, जहां आज भी जगदी के अभिशाप को भुगत रहे हैं.
जब विशेष दर्शन व्यवस्था के खिलाफ हुई आवाज बुलंद
...हर १२ वर्ष के अंतराल पर एक बार जगदी का होम (यज्ञ) होता है. इस होम में जैसा-जैसा समय बदला कई व्यवस्थाएं भी बदलीं. आज यद्यपि जगदी की सक्षम कमेटी समयानुकूल निर्णय लेती है, किंतु कहते हैं एक दौर ऐसा भी था जब यहां के कुछ खास लोगों को राजा द्वारा विशेष अधिकार दिये गये थे. यहां इस संबंध में एक ७५ वर्षीय वृद्ध बुद्धिजीवी बताते हैं कि जब नारायण में होम होता था तो चांजी के 'रौतोंÓ का उस दौर में काफी बोलबाला था. होम के दौरान यह लोग जब नारायण में आते थे तो इनकी रानियों के लिए विशेष दर्शन व्यवस्था की जाती थी. आज की बात करें तो जैसे कही प्रसिद्ध मंदिरों में अतिविशिष्ट लोगों के लिए दर्शन के लिए विशेष व्यवस्था होती है, वैसे ही उस दौर में चांजी के 'रौतोंÓ (रावत) के लिए विशेष दर्शन व्यवस्था थी. लेकिन कहते हैं इस प्रथा का विद्रोह हुआ. यहां इस व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठीं. कहते हैं चांजी के रौतों को दिए जाने वाले विशेष तव्वजो के खिलाफ भौंणा के श्री पंचम सिंह रावत जी ने पहली आवाज उठाई और जगदी के होम में समानता की व्यवस्था लागू करवाई.
Friday, June 18, 2010
कैंतुरा महरों के कंधों पर है जिम्मेदारी
फिर नहीं हुई मुलाकात...
मोती वंश के हैं कमेटी के ढोल वादक
स्मरणीय है मयाली कंकण की यात्रा
और अबिंडा से ही वापस हो गए थे नौजूला के यात्री
आसपास की पट्टिïयों में भी आस्था और श्रद्धा के साथ लिया जाता है जगदी का नाम
बगडवालों के यहां विराजती है भिलंग की जगदी मां
उत्तराखंड युग-युगांतर से भारतीयों के लिए आध्यात्मिक शरणस्थली, तपस्थली और शांति प्रदाता रही है। हिमाच्छादित पर्वत शृंखलाएं, कल कल करती नदियां, मनमोहक प्राकृतिक सौंदर्य, तीर्थस्थल, सीढ़ीनूमा खेत, छोटे-छोटे गांव मानव मन को अपनी ओर आकर्षित कर देते हैं। प्रत्येक गांव में शिवालय व विभिन्न देवी-देवताओं के मंदिर अपने आप में देवभूमि होने का प्रमाण है। उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों में इन देवस्थलों पर कौथिग (मेले) लगते हैं. बड़े ही उत्साह के साथ लोग श्रद्धाभाव से अपने ईष्टों का पूजन करते हैं व उस मेले में शामिल होते हैं. मां जगत जननी भगवती पार्वती तो उत्तराखंड की आराध्य देवी कुलदेवी हैं. मां शक्ति की आराधना तो उत्तराखंड के घर-घर में की जाती है. उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जनपद के अंतर्गत पट्टïी भिलंग में भी मां जगदम्बा की जात दी जाती है. संपूर्ण भिलंग पट्टïी की ईष्ट देवी है मां जगदी (जगदम्बा). प्रत्येक वर्ष घुत्तु के ऊपर बुगेलाधार में जगदी का उत्सव मनाया जाता है. इस मेले में भिलंग पट्टïी के चंदला, देवंज, महरगांव, राणी डांग, घणाती, चडोली, कंडार गांव, कोड़ी, रैतगांव, सटियाला, दरजियाणा, कोट, ऋषिधार, मल्ला गवांणा, तल्ला गवांणा, टमोटेणा, खाल, पुजारगांव, मेन्डू, सेंदवाल गांव, भाटगांव, गेंवालकुड़ा, कैलबागी, नगर कोट्ïयाणा, कन्याज इत्यादि गांव शामिल होते हैं. बुगेलाधार में मां जगदी का दिव्य मंदिर स्थापित है, इसके साथ-साथ नागेंद्र देवता, साधु की कुटिया व अन्य छोटे-छोटे मंदिर भी हैं. संपूर्ण भिलंग पट्टïी में ज्येष्ठ माह में प्रत्येक गांव जगदी की जात देता है और उसके बाद सभी गांवोंं की पंचायत बुलाकर एक तिथि निर्धारित की जाती है और उस दिन विशाल रूप से यह उत्सव मनाया जाता है. मां जगदी की पूजा अर्चना चंदला गांव के पैन्यूली जाति के ब्राह्मïणों द्वारा होती है. देवी जात के पहले दिन मेळाग- फॉन्टा (चंदा) जमा करके देवी के मूल स्थान 'टाटगÓ स्थान पर जाते हैं. टाटग एक स्थान है, जो कि बिशोन का डांडा (पर्वत) के नीचे है. टाटग स्थान पर एक शिला है, जिसे जगदी का मूल स्थान माना गया है. वहां रातभर उस शिला की पूजा होती है. रात्रभर सभी श्रद्धालू जागरण करते हैं. बिशोन का डांडा पंवाली बुग्याल से शुरू होता है और कुंणी, मंजेठी, जान्द्रीय सौड़ तक फैला है, यहां वर्षभर बारिस होती है. बिशोन डांडा की एक ओर बांगर व लस्या पट्टिïयां हैं तथा दूसरी ओर भिलंग व दोणी हिंदाव पट्टïी है. इस घनघोर जंगल में मां जगदी आछरियों से मिलने जाती है तथा रातभर पूजापाठ के बाद टाट्ग स्थान से दूसरे दिन बुगेलाधार पहुंचती है. बुगेलाधार पहुंचने पर उस दिन इस स्थान पर बहुत बड़ा मेला (कौथिग) लगता है. इस कौथिग को संपूर्ण भिलंग पट्टïी के लोग हर्षोउल्हास के साथ मनाते हैं. उस दिन बुगेलाधार में एक ओर जहां बाजार सजा रहता है, वहीं दूसरी ओर ढोल-दमाऊं की थाप पर लोग पांडव नृत्य करते हैं. दूर-दूर से ध्याणे (महिलाएं) आकर एक-दूसरे के गले लगती हैं और शृंगार की विभिन्न वस्तुएं खरीदती हैं. लोग देवी की डोली को दिनभर कंधे पर उठाकर नचाते हैं. संपूर्ण पट्टïी के लोग अपना न्यूता डालते हैं, देवी का पसुवा के माध्यम से उनका संदेश सुनते हैं. तत्पश्चात सायंकाल को देवी की डोली तल्ला गवाणा को प्रस्थान करती है, जहां वह बगडवाल लोगों के स्थान पर विराजती है. पट्टïी के जिस गांव में पूजा होती है, वे इस डोली को वहां से सम्मान से ले जाते हैं तथा उसकी पूजा अर्चना करते हैं. बुगेलाधार में स्थित यह मंदिर जगदंबा सर्व सेवा समिति, मुंबई द्वारा बनाया गया है. यह समिति सन्ï १९६५ में बनी थी तथा आज से २०-२२ वर्ष पहले यह मंदिर बनाया गया था. बिनाशकारी भूकंप आने से मंदिर क्षतिग्रस्त हो गया था. परंतु मां जगदी के आशीर्वाद से मुंबई की समिति ने पुन: इस मंदिर का निर्माण करवाया. इसके साथ-साथ जगदम्बा सर्व सेवा समिति, मुंबई ने नागेंद्र देवता का मंदिर व एक भव्य जगशाला का भी निर्माण करवाया. मां जगदी के आशीर्वाद से यह क्षेत्र धन धान्य से परिपूर्ण है. देवस्थानों के साथ-साथ यह क्षेत्र रमणिक भी है. कारण यहां से पंवाली कांठा, त्रिजुगीनारायण, केदारनाथ पैदल मार्ग, खतलिंग ग्लेशियर, सहस्त्रताल, गंगी, कल्याणी जैसे पवित्र व मनमोहक स्थल भी हैं. आने वाले समय से तीर्थाटन व पर्यटन के क्षेत्र में यह क्षेत्र आगे बढ़ रहा है. मुझे पूर्ण विश्वास है कि मां जगदी के आशीर्वाद से यह क्षेत्र उत्तराखंड का पांचवां धाम होगा. जय जगदी मां!(लेखक हिमशैल, मुंबई के प्रधान संपादक हैं)
उत्तराखंड एक झलक
नौज्यूला का परिचय
जब 2008 के चुनाव में अखबारों की सुर्खियों में रहा हिंदाव क्षेत्र
Thursday, June 17, 2010
मेरा परिचय
Wednesday, June 16, 2010
जनप्रतिनिधियों से पर्यटन क्षेत्र बनाने की मांग
हिंदाव की जगदम्बा का प्रभाव हिंदाव तक ही सीमित नहीं है. यद्दपि जगदी हिंदाववासियों की आराध्य देवी है मगर आस-पास की पट्टिïयों में भी जगदी को अति प्रचाधारी देवी के नाम से जाना जाता है. यहां की पड़ोसी पïट्टïी ग्यारह गांव हिंदाव, नैलचामी, भिलंग, केमर अर्थात समूचे भिलंगना प्रखंड एवं लस्या, भरदार में जगदी को प्रमुख देवियों में गिना जाता है. जगदी जात के दिन दूर-दूर से लोग यहां देवी दर्शन के लिए आते हैं. साथ ही यहां की अन्य पट्टिïयों में विवाहित महिलाएं भी इस दिन का दिल थाम कर इंतजार करती हैं. जगदी जात के दौरान हिंदाववासियों के घरों में नाते-रिश्तेदारों का तांता लगा रहता है और अपने इस प्रमुख मेले के लिए क्षेत्रवासियों द्वारा अपने रिश्तेदारों/परिचितों को यहां आने का न्यौता दिया जाता है. हाल में आवागमन की सुलभता, संचार एवं प्रसार माध्यमों के चलते जगदी की जात राज्य के अन्य प्रमुख मेलों की तरह प्रसिद्ध हो रही है. उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद बदले राजनीतिक समीकरणों के मद्देनजर क्षेत्रीय जनप्रतिनिधियों की मेले में बढ़-चढ़ कर उपस्थिति मेले को राज्यस्तर पर पहचान दिलाने की ओर अग्रसर है. क्षेत्रीय जनप्रतिनिधियों एवं क्षेत्रीय प्रबुद्ध वर्ग के प्रयासों के चलते उम्मीद की जानी चाहिए कि जगदी की जात क्षेत्रीय सीमाओं को लांगकर राज्य में प्रमुख मेलों में सुमार होगी. दिनोंदिन जिस प्रकार राजनीतिक दलों के नेता एवं जनप्रतिनिधियों का रुख इस क्षेत्र की प्रमुख देवी की जगदी जात की ओर बढ़ रहा है, मेले में घोषणाएं एवं मांगें भी होने लगी हैं. क्षेत्र को पर्यटक स्थल के रूप में विकसित किए जाने की भी मांग उठने लगी है.
अपनी बात
श्री शंकरसिंह रावतलैणी,
पंगरियाणा, हिंदाव।
माननीय पाठकों,
नौज्यूला हिंदाव की परमशक्तिमान, दुखों का निवारण करने वाली, हर घर-हर दिल में वास करने वाली, हम सबकी आस्था की प्रतीक जगतवंदनी देवी को मेरा शत्ï शत्ï नमन.इससे पूर्व हालांकि मुझे कई विषयों पर लेख लिखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, लेकिन मां जगतवंदनी जगदी के विषय में लिखने में जो अपनत्व का भाव महसूस हो रहा है वह बहुत ही सुखदायी है. वर्षों पूर्व जब में बहुत छोटा था और स्कूल पढ़ता था तब की यादों की तरफ में थोड़ा जाना चाहूंगा. साल के वो दो दिन ''दिन जात एवं जगदी जातÓÓ पूरे साल भर का इंतजार इन दो दिनों के लिए. मां जगदम्बा की इस पारंपरिक जात की शुरुआत में बाकी द्वारा बजाए जाने वाले शंखनाद से शुरू हुआ हृदय लुभावन, आस्था भरा आनंद, रिश्तेदारों का आगमन, घर के बुजुर्गों द्वारा दिया जाने वाला जात का खर्च, दोनों दिनों मां जगदी की डोली का रंगारंग रूप, उत्तेजित करने वाले मां के भक्तों द्वारा बजाए जाने वाले ताल, बाकियों द्वारा दिया जाने वाला आशीर्वाद, रातभर शिलासौड़ में दिवारे बैठने का सौभाग्य, बाकियों द्वारा पारंपरिक नृत्य आदि कुछ ऐसे दृश्य स्मृति पटल पर नजर आते हैं जो आज भी मन को भाव-विभोर करते हैं. लेकिन जिन भाग्यशालियों को आज भी जगतवंदनी मां के इस दो दिवसीय वार्षिक महोत्सव (जात) में भाग लेने का सौभाग्य प्राप्त है वे मां का आशीर्वाद पाकर धन्य हैं.जैसा कि हम सभी को ज्ञात है कि उत्तराखंड की देवभूमि पर आज भी परमेश्वर हमारे देवी-देवताओं के रूप में मौजूद हैं. परदेश में लोग कहानियां सुनाते हैं कि हमारे यहां पुराने जमाने में ऐसी देवीय शक्तियां हुआ करती थीं, लेकिन हिंदाववासियों को तो यह वास्तविकता आज भी दृष्टिगोचर होती है. मां की महिमा का असर हर उस प्रार्थना में है जो हम सच्चे दिल से मां के चरणों में अपर्ण करते हैं. हम बड़े भाग्यशाली हैं कि हमारा जन्म मां की धरती पर हुआ और आजीवन मां का आशीर्वाद हमें मिलता रहेगा, यही परम सौभाग्य है हर हिंदाववासी का.मैं अपने समाज के प्रति भी गौरवान्वित महसूस करता हंू कि आज भी हमने अपने पारंपरिक रीति-रिवाजों को नहीं त्यागा, बल्कि उन्हें और भी उत्साह के साथ बढ़ावा देकर आस्था और विश्वास को सुदृढ़ किया है.तेजी से बदलते वक्त ने सामाजिक सोच के दायरे को भी बदला है. अत्याधुनिकीकरण ने जो वैज्ञानिक तरीके हमें मुहैया कराए, उसने हमसे छीना है तो हमारी धार्मिक आस्था और विश्वास, परंतु मां जगदी की महिमा इतनी सशक्त है कि मां के प्रति हमारी आस्था आज भी वही है, बल्कि और भी सुदृढ़ हुई है. मैं हर क्षेत्रवासी से विनती करूंगा कि इस आस्था को अपनी धरोहर बनाए रखें और मां जगदी की कृपा से आपके कार्य मंगलमय होते रहेंगे.साथ ही में श्री ज्योति राठौर एवं श्री गोविंदलाल आर्य को बधाई देता हंू कि उन्होंने एक नेक सोच का परिचय दिया. मां जगदी की महिमा घर-घर में पहुंचाने का काम निश्चित रूप में सराहनीय है. इस वर्ष मां जगदम्बा का १२ वर्ष बाद आने वाला यज्ञ (होम) होने जा रहा है, जिसमें हजारों भक्तों की मनोकामनाएं मां पूरी करेंगी, यह मेरी कामना है. मां के चरणों में समर्पित यह पुस्तक मां की महिमा की जानकारी भक्तों को देगी जो निश्चित रूप से वर्ष २००९ के होम को ऐतिहासिक और यादगार बना देगी.मैं एक बार पुन: मां के चरणों में नमन करते हुए नौज्यूला की समस्त जनता को प्रणाम करता हंू.''जय जगतवंदनी मांÓÓ(स्तंभकार मुंबई में कई सामाजिक संस्थाओं का सक्रिय संचालन कर रहे हैं.)
उत्तराखंड में सात्विक पूजा की मिसाल है मां जगदी
इंटरनेट से भी हो सकेंगे मां जगदी के दर्शन
जो पाया जगदी की कृपा से पाया
श्री शंकर सिंह कुंवर
उत्तराखंडवासियों में उद्योगजगत के प्रमुख हस्ताक्षर कुराणगांव के मूल निवासी श्री शंकर सिंह कुंवर मुंबई में करोबार में मिली सफलता को जगदी की कृपा मानते हैं। उद्योगपति श्री शंकर सिंह कुंवर अपने मूलगांव कुराणगांव से सन् १९६४ के दौरान मुंबई आए। मुंबई में आने के बाद कुंवर जी ने भी रोजगार के लिए आने वाले आम प्रवासियों की तरह अपनी आजीविका शुरू की. किंतु मन में नौकरी से ऊपर उठ कर खुद के व्यवसाय करने की इच्छाशक्ति प्रबल थी. जगदी की कपा और श्री कुंवर के कठिन परिश्रम के बल पर कुंवर जी अपना व्यवसाय करने में सफल रहे और आज मुंबई में उत्तराखंड के तमाम उद्योगपतियों में श्री शंकर सिंह कुंवर का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है. श्री कुंवर अपनी इस उपलब्धि को मां जगदी का आशीर्वाद मानते हैं और क्षेत्र के लिए अपने योगदान को तत्पर हैं. कुंवर अपनी कर्म भूमि मुंबई को सलाम करते हैं, जहांपर उन्हें मेहनत का भरपूर प्रतिफल मिला और आज एक विशेष मुकाम हासिल किया है. मायानगरी मुंबई में कारोबार को नई बुलंदियों पर पहुंचाने की आपाधापी के बावजूद श्री कुंवर का जन्मभूमि के प्रति जुड़ाव कम नहीं है. यह मातृभूमि अपार प्रेम के चलते श्री कुंवर जी ने चाहे फिल्मों के जरिए हो या क्षेत्रवासियों को रोजगार मुहैया कराने की बात, कुंवर जी हमेशा इस जन्मभूमि को हमेशा प्राथमिकता दी है. कुंवर जी के ही शब्दों में कि मानों उनका शरीर भले मुंबई में हो, किंतु एक प्राण वहां भी बसता है. मुंबई के सामाजिक सरोकारों एवं प्रवासी उत्तराखंडियों की विभिन्न संस्थाओं में कुंवर जी की सहभागिता नौज्यूला को गौरवान्वित करती है. श्री कुंवर जी ने अपने कारोबार के कुशल संचालन के साथ ही जन्मभूमि के वाशिंदों के लिए उल्लेखनीय कार्य किए हैं. हिंदाव ही नहीं, समूचे उत्तराखंड से रोजगार के लिए मुंबई आने वाला जो व्यक्ति श्री कुंवर जी के पास पहुंचा, उसे रोजगार दिलाने में मदद की है. श्री कुंवर हिंदाव क्षेत्र एवं आस-पास के हजारों लोगों के विदेश जाने के सपने को साकार कर चुके हैं. यह कार्य आज भी सतत जारी है।
जगदी को नमन
श्री दिनेश शाह
नौज्यूला की आराध्य देवी होने के नाते नौज्यूलावासियों की जहां जगदी के प्रति अटूट आस्था है, वहीं हिंदाव के पास-पड़ोस के लोग भी जगदी के प्रति अगाध श्रद्धा रखते हैं. अपने पुश्तैनी कारोबार को कुशलतापूर्वक संचालित कर रहे श्री दिनेश शाह हिंदाव की जगदी को नमन करते हैं. सोने की विश्वसनीयता एवं शुद्धता की जब भी बात आती है तो देश में 'मुंबई के सोनेÓ को पहला स्थान प्राप्त है. इसी विश्वास और शुद्धता को जब गढ़वाली गहनों कीशक्ल में ढालने-गढऩे की बात हो तो गढ़वालवासियों को मुंबई में एक ही नाम याद आता है और वह नाम है, श्री भरपूर शाह का. स्व. भरपूर शाह १२ वर्ष की उम्र में बजियालगांव (ग्याहरागांव हिंदाव) से रोजगार की तलाश में शहरों की ओर निकले. भरपूर शाह ने अपने अन्य साथियों के साथ लगभग १० वर्ष तक मसूरी में काम किया, किंतु स्थायी रोजगार के लिए यह नाकाफी था. श्री शाह १९६१ में मसूरी से मुंबई आए. मुंबई में उस दौर में रोजगार की कमी नहीं थी. सरकारी-अर्धसरकारी कंपनियों में रोजगार आसानी से उपलब्ध था, किंतु शाह जी की दूरदृष्टि का परिणाम था कि उन्होंने नौकरी के बजाय पूर्वजों से विरासत में मिली स्वर्णकला को अपने कारोबार के लिए सर्वोपरि माना और देखते ही देखते गढ़वाली-कुमाऊंनी गहनों के लिए एक विश्वसनीय नाम बन गए. श्री भरपूर शाह ने अपने कारोबार में अपने सुपुत्र श्री दिनेश शाह को भी पारंगत बनाया और विज्ञान स्नातक दिनेश शाह ने इस पुश्तैनी कारोबार में आधुनिक फैशनकला के कुशल संयोजन से 'सोने में सुहागाÓ की कहावत को सही मायनों में चरितार्थ किया. अपनी विरासत अपने पुत्र के पास छोड़कर श्री भरपूर शाह ने ३० नवंबर २००७ को अंतिम सांस ली. इससे पूर्व २४ मई १९९७ में भरपूर शाह की पत्नी श्रीमती राजमती शाह का निधन हुआ. दिनेश शाह मुंबई में अपने कारोबार को नया आयाम दे रहे हैं और आज जबकि उनके ग्राहक हर वर्ग राज्य के हैं, किंतु गढ़वाली-कुमाऊं के ग्राहकों के प्रति अपार स्नेह है और गढ़वाली-कुमाऊंवासियों के गहनों को बनाकर इसे मातृभूमि की सेवा मानते हैं. आज जबकि सोने की कीमत आसमान छू रही है, ऐसे में सीधे-सादे पहाड़वासियों को खरा सोना मिले, दिनेश शाह इस ध्येय के साथ सेवारत हैं.
जगदी के बाकियों की सूची
(१) श्री बुुटेर गंवाण (नेगी)
(२) श्री बैशाखू सिंह
(३) श्री केशरू सिंह
(४) श्री देबूसिंह
(५) श्री मुर्लूसिंह नेगी
(६) श्री कलीसिंह
(७) श्री दुर्गा सिंह
(८) श्री सौकार
(९) श्री रूपचंद सिंह
(१०) श्री रघुबीर सिंह नेगी (वर्तमान
जगदी के पुजारी अवधि
(१) श्री शीशराम थपलियाल (ज्ञात नहीं)
(२) श्री शंकरदत्त थपलियाल (४५ वर्ष)
(३) श्री पिताम्बरदत्त थपलियाल (२७ वर्ष)
(४) श्री महिमानंद थपलियाल (१८ माह)
(५) श्री कमलनयन थपलियाल (३२ वर्ष)
(६) श्री यशोदानंद थपलियाल (वर्तमान)
बताया यह भी जाता है कि जगदी के पुजारी के तौर पर श्री ईश्वरी दत्त थपलियाल जी भी नियुक्त हुए थे, हालांकि इनके पास एक दिन भी देवता रहने का जिक्र नहीं मिला है।-नोट- पूज्य बाकी एवं सम्मानित पुजारियों की सूची में उल्लेखित नामों को यद्यपि क्रमवार देने का प्रयास किया गया है, लेकिन यह कार्यकाल आगे-पीछे संभाव्य हैं।
माँ जगदी
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